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________________ देना व इतनी सी बात के लिये समस्त भविष्य को प्रकाश पुञ्ज से वश्चित कर देना कमसे कम दूरदर्शिता की बात तो नहीं कही जा सकती । कुप्रचार से बचाने के लिये कुछ विशिष्ट कोटि की विद्याओं को गुप्त रख लेना शायद अयुक्त नहीं कितु सारे विज्ञान साहित्य को छिपा लेने का कार्य मानवता के समक्ष अपराधों को कोटि में गिना जा चुका है । हम पूर्व साहित्य के विषयों का उल्लेख कर इस निबंध के कलेवर को अनावश्यक दीर्घ बनाना नहीं चाहते किंतु विद्वानों से अनुरोध करते हैं कि वे पूर्व की विषय सूचि में वर्णित संभावनाओं को एकत्रित कर उनका स्पष्टीकरण करें ताकि आज के विज्ञान युग के समक्ष प्राचीन भारतीय ज्ञानकोष की तद् विषयक विशेषताऐं रखी जा सके। परतंत्रता की बेड़ियों के कारण हमारे विवेचनों का आज तक उचित मूल्य नहीं आँका गया और अधिकांश में हमारे ज्ञान मंत्रों की चोरी कर अपने नामों के साथ उनके भाविष्कार को जोड़ पाश्चात्यों ने हमारी सभ्यता व संस्कृति की हँसी उड़ाई है । भिन्न २ विषय की पाश्चात्य पुस्तकों में सदा ऐसे ही उल्लेख मिलते हैं कि अमुक विषय की सर्व प्रथम शोध करने वाला कोई अंग्रेज था तो कोई फ्रेंच अथवा तो कोई जर्मन या और कोई किंतु सभ्य कहलाने वालों को यह नहीं सकती कि भारतीय साहित्य को समझ बूझ कर भी इस तरह का असत्य व कापट्य पूर्ण प्रवचन कैसे करें।
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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