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________________ ( ४ ) भावी संतति उन ज्ञान गवेषणाओं के सहारे आगे बढ़ने में समर्थ होती। इन तीन शताब्दियों में पाश्चात्य विद्याओं ने जो उन्नति की है उसका प्रधान श्रेय उनकी प्रचार पद्धति को है । भारतीय ज्ञान कोष की प्रेरणा से अथवा अपने स्वतन्त्र अनुसन्धान से कभी किसी सत्य का निर्णय होजाता है तो उसे छिपा कर रखा नहीं जाता वल्कि तद्विपरीत उसको सब के समक्ष रख दिया जाता है ताकि समझने वाले समझ लें। इस प्रचार के फल स्वरूप अनुसंधान क्रिया वहीं तक नहीं रुकती परन्तु पूर्व शोधन का अाश्रय ले नया मेधावी वहां से आगे बढ़ता है ( जहां तक पूर्व शोध हो चुकी होती है ) अतः उन्नति का क्रम रुकता नहीं बल्कि आगे बढ़ता है । भारतीय पद्धति ठीक इसके विपरीत चली । मध्ययुग से प्रचार की ओर न जाकर वह सङ्कुचित होती गई। प्राचीन अनुश्रुतियों के अनुसार पुराकाल में विद्याओं का आम जनता में भी प्रचार था एवं प्रत्येक को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा थी। किंतु मध्य युग में सङ्कीर्ण वृत्याश्रयी पंडितों की स्वार्थ परायणता के कारण सब कुछ लुटा दिया गया । अपनी प्रतिष्ठा को ही मुख्य ध्येय मान विशिष्ट विद्याओं को उन्होंने अपने तक ही रखा और ज्यों २ उनकी संख्या घटने लगी एक २ कर सब चीजें विस्मृति के भोग चढ़ गयीं। परतन्त्रता की बेड़ियों ने रही सही रुचि को और भी नष्ट कर डाला परिणामतः आज की भारतीय संतति ज्ञान विज्ञान के सभी मन्त्रों से अनभिज्ञ है।
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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