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________________ . जीववाद .८१ असत्य है, क्योंकि पिशाचोंकी विद्यमानता और हिमालयकी शिलाओंके नापकी विद्यमानता यह दोनों किसी भी प्रमाणसे नहीं जानी जासकती, तथापि इन दोनोंकी विद्यमानता माननी पड़ती है । यह आत्मा पांचो प्रमाणों से किसी भी प्रमाणसे मालूम नहीं होता यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान इन दोनों प्रमाणोंसे आत्माका भान हो सकता है इस विषयमें पहले सविस्तर उल्लेख किया जा चुका है। आत्मा परलोकमे जानेवाला भी है, याने उसे कर्मवश होनेके कारण जन्मान्तर भी करने पड़ते हैं। इस वातको अच्छी तरहसे सव समझ सके ऐसा सादा, सरत्न, सबूत, इस प्रकार है-ताजे ही जन्मे हुए वालकका किसीकी प्रेरणा या शिक्षणाके विना जो माताका स्तनपान करनेका मन होता है वह उसके पूर्वाभ्यालका ही परिणाम है। किसी भी प्राणीको विना अभ्यास किया करना नहीं आता । यह एक ऐसी साधारण बात है कि जिसे सब समझ सकते हैं । अतः वह ताजा वालक जो यहाँ पर विना ही शिक्षणके स्तनपानकी क्रिया करता है वह उसके पूर्वजन्मके अभ्यासका ही परिणाम है यह कल्पना जरा भी प्रयुक्त नहीं है। इसी कल्पनाके द्वारा आत्माका परलोकगमन साबित हो सकता है। जो मनुष्य आत्माको सर्वथा कूटस्थ, नित्य, याने जिसमें ज़रा भी परिवर्तन न होसके ऐसा नित्य मानते हैं उन्होका मत भी यथार्थ नहीं है । क्योकि यदि उनका मत सत्य मान लिया जाय तो प्रात्मा- . में कदापि किसी प्रकारका परिवर्तन न होना चाहिये । जब आत्मा अमुक प्रकारके शानरहित होकर फिर अमुक प्रकारके ज्ञानवाला बनता है तब पहिले वह अज्ञाता था फिर वह ज्ञाता बनता है। यदि आत्माके स्वभाव में किसी प्रकारका जरा भी परिवर्तन न होता हो तो वह अज्ञाता से ज्ञाता कैसे बने ? अतः आत्माको किसी भी प्रकारके परिवर्तन रहित नित्य मानना यह मत ठीक नहीं। सांख्य मतवाले आत्माको कर्त्ता नहीं मानते । उन्होंका यह मत असत्य है। क्योंकि अपने कर्मफलोंका भोगनेवाला होनेसे आत्मा
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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