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________________ जीववाद ६९ और जो यह कहा गया है कि चैतन्यका सम्बन्ध होनेसे शरीर सचेतन होता है और उसे ही अहमत्वकी बुद्धि हुआ करती है, इत्यादि यह बात भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ स्वयं चैतन्यवाला नहीं होता उसे चाहे जितना चैतन्यका सम्बन्ध हो तथापि उसमें चेतना शक्ति आही नहीं सकती । जिस प्रकार घड़े में प्रकाश देनेकी शक्ति नहीं और उसे भले ही हजारो दीपक का सम्बन्ध जोड़ दिया जाय तथापि वह घड़ा कदापि प्रकाश नहीं दे सकता, उसी तरह शरीर स्वयं चैतन्यराहत होनेसे उसे चाहे जितना चैतन्यका सम्बन्ध हो तथापि उसमें ज्ञानशक्ति नहीं हो सकती । एवं शानशक्ति श्रा भी नहीं सकती । इस लिये अपनी बुद्धिका आधार आत्मा है और वह शरीर से जुदा ही है ऐसा मानना दूपणारहित है । यह जो कहा गया था कि मैं मोटा हूँ, मैं पतला हूँ, इत्यादि खयाल जिस तरह शरीरके विषयम ही घटता है उसी तरह मैं जानता हूँ ऐसा खयाल भी शरीरके लिये क्यों न घट सके ? यह प्रश्न भी आपका यथार्थ नहीं है क्योंकि जिस तरह कोई शेठ स्वयं अपने प्रिय और विशेष कमेरे नोकर भी अपने शेठपनकी कल्पना कर सकता है अर्थात् वह नौकर जो कुछ करे सो मुझे मंजूर है ऐसी बुद्धि जिस तरह शेठको हो सकती है उसी प्रकार यह शरीर आत्माका प्रिय और विशेष काम करनेवाला नौकर होनेसे आत्मा कितनी एक दफा उसमें अपनी आत्मीयताका आरोप कर देता है और कितने एक शरीरके धर्मको भी अपने आपमें ग्रहण करलेता है । ऐसा होनेसे ही मैं मोटा हूँ, मैं पतला हूँ, इस तरह के काल्पनिक खयाल आत्मामें उपस्थित हो गये हैं । इस लिये ये खयाल शरीरमें ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं तथा यह काल्पनिक होनेके कारण इसके द्वारा आत्माका भी निषेध नहीं हो सकता । 'आपने जो यह फर्माया था कि चैतन्य शरीर से ही बनता है इत्यादि यह भी आपका कथन असत्य ही है, क्योंकि शरीरके साथ चैतन्यका किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं । यदि शरीरमसे ही चैतन्य चनता हो तो जहाँ जहाँ पर शरीर हो वहाँ वहाँ पर श्रवश्य
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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