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________________ १२ जैन दर्शन पताको पहुँच सकता है और उस गुणको अपनी पूर्णता प्राप्त कर लेने पर सर्वक्षकी सिद्धि करना कोई बड़ी बात नहीं है । आपने जो प्रथम कुदनेका उदाहरण देकर हमारे इसी नियमको शियिल करनेका प्रयास किया हैं सो भी यथार्थ नहीं है । क्यों कि पानीकी उरणताके समान कृदना यह कोई मनुष्यका स्वाभाविक गुण नहीं हैं, इस लिये आपका पूर्वोक्त उदाहरण इस हमारे नियमको बीला करनेमें चरितार्थ ही नहीं हो सकता । दूसरी एक यह भी दलील है कि जिस तरह देख पड़ते हुये जगतमें कुवे, तालाव, पर्वत, नदी समुद्र आदि पदार्थ जानने योग्य होनेले वे मनुष्य द्वारा जाने जाते हैं, हम उन्हें जान सकते हैं उसी प्रकार यह अखिल विश्व क्षेय होनेले याने जानने योग्य होनेके कारण किसी भी द्वारा वह ज्ञापित याने जाना गया होना चाहिये। जो व्यक्ति उस अखिल मेय-विश्वको जानता है उसी महापुरुषको सर्वज्ञ कहते हैं। आप यह तो कह ही नहीं सकते कि कुवे,तालाव नदी पर्वतादि क्षेय नहीं याने जानने योग्य पदार्थ नहीं है, क्योंकि इस विषयमें किसीका भी मतभेद नहीं है। आपने जो पहिले यह फरमाया कि ज्योतिष वगैरहका ज्ञान तो एक गणितशास्त्र जाननेवाले मनुष्यको भी होता है, सो तो ठीक परन्तु जिस समय गणितका भी अस्तित्व न था उस समय लवले पहिले जिले इस विषयका ज्ञान हुआ होगा वह तो सर्व ही होना चाहिये । उस सर्वजने पूर्वोत गहन विषयोंको गणितशास्त्रकी पद्धति द्वारा हमे जनानेके लिये बुद्धिगम्य हो सके ऐसी सरल और सुगम शैलीले प्रतिपादन किया है, इसी कारण हमे वे गहन श्रेय विषय सुगम मालूम देते हैं। परन्तु इस प्रकारके सर्वथा अगम्य विषयाँका झान सवसे पहिले विना सर्वज्ञके अन्य किली व्यक्तिको होता हो यह बात मानने योग्य नहीं। इससे एक तीसरा यह भी अनुमान होता है कि जो कोई उपदेश विना, निशानी विना या अन्य किसीकी सहायता विना. जिस विषयको जान सकता है वह अवश्य ही उस विषयको जाननेवाला या देखनेवाला हो तवही वैसा बन सकता है।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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