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________________ ० जैन दर्शन यह भी है कि जिस प्रकार संसारका आदि और अन्त नहीं है उसी प्रकार उसमें रहे हुये पदार्थोका भी अन्त नहीं है तव फिर • वह आपका सर्वश अनन्त पदार्थात्मक समस्त विश्वके क्रमसे एक एक पदार्थको जानता हुआ अनन्तकाल वीतने पर भी सर्वक्ष. किस तरह हो सकेगा? और एक बात यह भी है कि जब वह सर्वज्ञ पदार्थ मात्रका जानकार होगा तो उसने अशूचि पदाथोंके रसको भी चाखा ही होगा यह वात आपको नाक चढ़ाकर भी मंजूर करनी पड़ेगी! हम अन्तमें आपसे सिर्फ यही पूछना चाहते हैं कि वह सर्वश भूतकालमें हो गई हुई और अब आगे होनेवाली वस्तुओंको किस आकारमें जानता है ? यदि वह भूतरूप और भविष्यरूपसे जानता हो तो उसका ज्ञान सूत तथा भविष्यरूप होनेसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता परन्तु स्मरण श्रादिकी तरह परोक्ष ही कहा जा सकता है। यदि वह समस्त पदार्थोंको वर्तमान रूपसे जानता हो . तो उसका ज्ञान भ्रांतिवाला ही कहा जा सकता है। क्योंकि भूत . तथा भविष्यकालीन वस्तुओंको वर्तमान रुपसे जानना ही असत्य है। इस प्रकार किसी भी दलील, तर्क या प्रमाण द्वारा सर्वशकी सिद्धि हो नहीं सकती। "अतः खोखले प्रमाणोंसे सर्वज्ञको सावित करनेका प्रयत्न करना व्यर्थ है" जैन-महाशयजी! आपका अभीतक सर्वशके अस्तित्वको उड़ा देनेमें ही लक्ष लगा हुआ है अतः आपको हमारी दलीलों पर पूर्ण विचार करनेका अवकाश ही नहीं मिलता। आप जरा ध्यान देखर विचार कीजिये, हम सर्वशको सावित करनेकी दलील पेश करते हैं। आप जो फरमाते हैं कि सर्वज्ञको सावित करने में एक भी प्रमाण नहीं मिलता यह वात सर्वथा असत्य है, क्योंकि सर्वज्ञकी सिद्धि करनेमें हमारा यह एक ही अनुमान प्रमाण काफी है-जिस जिस गुणमें तरतमभाव मालूम पड़ता हो वह तरतमभाव कहीं न कहीं पर किसी न किसी समय पूर्ण रीतिसे प्रकर्षताको प्राप्त होता है। जिस प्रकार परिमाणमें याने नापमै तर तमभाव मालूम होता है, अर्थात नांपमें अधिकता और न्यूनता
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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