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________________ प्रमाणवाद २१५ । अनुमानमें पदार्थकी [हेतुकी ] साक्षात् कारणता कहाँ मालूम होती है, आकाशमें काले वादल होनेसे वृष्टि होगी ऐसा अनुमान हो सकता है और नदीमें बाढ़ आई देखकर वृष्टि हुई होगी ऐसा अनुमान हो सकता है। इन दोनों अनुमानों में वृष्टिको साक्षात् विद्यमानता कारणरूपमें नहीं है तथापि इन दोनोंको प्रमाणरुप माना जाता है वस वैले ही स्मरणको भी प्रमाणरूप गिनना चाहिये। जहाँपर धूया देखकर अलिका अनुमान किया जाता है उस अनुमानमें पदार्थकी साक्षात् कारणला विद्यमान है, अर्थात् अनुमानमें तीनों कालके पदार्थोका भास हो सकता है । यदि अनुमानके समान सारणको भी प्रमाणरूप नहीं माना जाय तो स्पष्ट तौरपर विरोध ही गिना जायगा। नवमी बात यह है कि ईश्वरका ज्ञान कि जिलके द्वारा वह पदार्थमात्रको जान सकता है, क्या वह इन्द्रिय और पदार्थोके सम्वन्धसे होता है ? या इसके विना ही होता है ? यदि ऐसा माना जाय कि वह इन्द्रिय और पदार्थों के सम्बन्ध विना ही होता है तो फिर आप जो इन्द्रिय और पदार्थक सम्बन्धले होनेवाले एवं व्यपदेश रहित ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं उसमेंले इन्द्रिय और पंदार्थके सम्बन्धसे होनेवाले कितने एक भागको निकाल देना चाहिये क्योंकि ईश्वरके प्रत्यक्ष वह उतना विभाव घट नहीं सकता। यदि कदाचित् यों कहा जाय कि ईश्वरके ज्ञानमे भी वह सम्बन्ध होता है, तो यह वात भी उचित नहीं है । क्योंकि ईश्वरका मन सर्वथा छोटा होनेके कारण एक ही समय में वह समस्त पदार्थोके साथ जुड़ नहीं सकता, इससे जब वह एक पदार्थको जानता है उसवक्त दूसरोंको नहीं जान सकता अतः हमारे समान उसका सर्वज्ञत्व कदापि नहीं घट सकता। क्योंकि वह ईश्वर मनके द्वारा एक ही समयमें समस्त पदार्थोके साथ सम्बन्ध न रख सकनेके कारण एक ही समयमें समस्त पदार्थोंको जान भी नहीं सकता। जो एकके वाद एक, ऐसे ऋमवार सव जानता है अतः यदि वह सर्वश कहलाता हो तो हम भी सब सर्वश कहलाने चाहिये। क्योंकि इसप्रकार क्रमशः हम भी सव
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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