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________________ प्रमाणवाद २१३ तथा बौद्ध यों कहते हैं कि जो कोई पदार्थ हमारे नजरके सामने आता है वह कोई सघन पदार्थ नहीं, वह सब भिन्न २ अणुओका ढेर है । परन्तु वौद्धोंका यह कथन सत्यता रहित है। क्योंकि जो बौद्ध कहते हैं वैसा ही यथार्थ हो तो घटका किनारा पकड़नसे वह सारा ही हाथमें कैसे आ सके ? तथा यदि ऐसा ही सत्य हो तो फिर कोई वस्तु फेंकी भी नहीं जा सकती और घसीटी भी नहीं जा सकती अतः बौद्धोंकी 'परमाणुओका ढेर' माननेकी मान्यता सर्वथा असत्य, व्यवहारविरुद्ध और अनुभवविरुद्ध है। बौद्धदर्शनमें इस प्रकारका विरोध समाया हुआ है। नैय्यायिक और वैशेषिक मतमें जो विरोध रहा हुआ है उसे भी इस प्रकार बतलाते हैं-उन दर्शनों में ऐसा माना जाता है कि सत्ताके योगसे सत्व आता है । तथापि सामान्य, विशेष और समवाय इन तीनों में सत्ताके सम्बन्धको वे नहीं मानते, तो भी इन के सद्भावका कथन करते हैं, इसमें विरोधके सिवाय और क्या मालूम होता है ? दूसरा यह कि वे लोग ' एक ही साथ दो क्रिया न हो सके ' इस वहानेसे ज्ञानको स्वप्रकाशी नहीं मानते, तथापि ईश्वरके ज्ञानको स्वप्रकाशी मानते हैं, यह भी स्पष्ट ही विरोध है। दीपक स्वयं ही अपना प्रकाश करता हुआ उपरोक्त वहानको निर्मूल कर देता है अतः यह मान्यता भी यथार्थ नहीं। तीसरी यह बात कि परवंचनरूप छल, जाति [शब्दोंसे फंसानेकी रीत] और निग्रह स्थानोंको भी जैनदर्शनतत्वरूप मानते हैं यह भी एक विचित्र जैसी बात है। कोई भी दर्शन ऐसी प्रपंची वातोंको स्थान नहीं दे सकता। . चौथी यह बात है कि आकाशको अवयवरहित मानकर ऐसा कहा जाता है कि आकाशका गुण शब्द उसके एक भागमें ही सुना जाता है यह वात सरासर विरोधसे ही भरी हुई है। __ पांचवीं बात यह है कि 'जहाँ सत्ताका सम्बन्ध होवे वहाँ ही सत्व हो'ऐसा माना जाता है। परन्तु सम्बन्ध तो वहाँ ही हो सकता है कि जहाँपर पदार्थोंका अवयवित्व हो, ऐसा होनेपर भी
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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