SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० जैन दर्शन विना संपूर्ण प्रामाणिकता प्राप्त नहीं कर सकते । अतः प्रत्येक दर्शनवालेको अपने २ मतका समर्थन करनेके लिये अनेकान्त. वादका आश्रय लेना जरूरी है। यदि हेतुको एकान्त अन्वयी या एकान्त व्यतिरेकी माना जाय तो उसके द्वारा इष्ट साधन नहीं हो सकता एवं परस्पर सम्बन्ध रहित अन्वयी और व्यतिरेकी माना जाय तो भी इष्ट सिद्धि नहीं हो सकती, किन्तु यदि उसे अन्वय और व्यतिरेक ऐसे दो रूपमें माना जाय तव ही साध्यकी साधना हो सकती है। कितने एक मतवाले हेतुके तीन और पांच लक्षण वतलाते हैं, वे भी दूषणवाले हैं ( इस विषयमें पहले हेतुके अधिकारमें मालूम किया गया है ) अत: जिस हेतुके द्वारा साध्यकी सिद्धि करनी हो उसे अनेकान्तवादकी दृष्टिसे अन्वय और व्यतिरेक ऐसे दो रुपवाना मानना चाहिये । तथा हेतुको, एकला सामान्यरुप एकला विशेषरूप या परस्पर सम्वन्धरहित एकला सामान्य रूप, अथवा विशेष रुप मानना यह भी युक्तियुक्त नहीं है। उले परस्पर सम्वन्धवाला सामान्य विशेषरुप मानना ही उचित और युक्तियुक्त है। 'परहेतुतमो भास्कर-वादस्थल' ! · अव जैनमतके विवेचनकी समाप्ति करते हुये अन्धकार कहते. हैं कि इस प्रकार जैनदर्शनका संक्षेप कहा है, जो निदोष है, और जिसमें कहींपर भी आगे किसी प्रकारका विरोध मालूम नहीं देता ॥ ५८ ॥ यदि सम्पूर्ण रीतिसे जैनदर्शनका विवेचन किया जाय तो . ' इससे भी अत्यधिक बड़ा ग्रन्थ वन जायगा । इसका सम्पूर्ण विस्तार नहीं कहा जा सकता अतः यहाँपर मात्र सारभूत भाग ही मालूम किया गया है । यहाँपर जो सारभाग बतलाया गया है . वह सर्वथा दूषणरहित है । क्योंकि वह सर्वज्ञपुरुषका प्रगट किया हुआ है और सर्वज्ञ पुरुषके कंथनमें कदापि दूषण नहीं:
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy