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________________ प्रमाणवाद २०७ लिये उन दोनों में किसी अपेक्षासे भेद और किसी अपेक्षासे अभेद मानना उचित है और इनमें इसीप्रकारके सम्बन्धका अनुभव किया जाता है जैसा अनुभव होता हो वैसा ही मानना विशेष प्रामाणिक है । यदि अनुभवसे विपरीत और कल्पनाके अनुसार माना जाय तो ब्रह्मा, द्वैत और शून्यवाद ये समस्त मान्यतायें भी कल्पित गिनी जाएँगी, अतः अवयव और अवयवीके पारस्परिक सम्बन्धको घटानेके लिये उन दोनों में किसी अपेक्षासे भेद और किसी अपेक्षासे अभेद मानना चाहिये और इस प्रकारकी मान्यताको विशेष दृढ़ करनेके लिये अनेकान्तवादको स्वीकारना भी चाहिये। इसी तरह संयोगी और संयोग, समवायी और समवाय, गुणी और गुण तथा व्यक्ति और सामान्य, इन सबमें भी परस्पर किसी अपेक्षासे भेद और किसी अपेक्षासे अभेद मानना चाहिये । यदि सर्वथा भेद ही या सर्वथा अभेद ही माना जाय तो यहाँपर पूर्वोक्त समस्त दूषण उपस्थित होते हैं अतः दुपण रहित मार्गमें चलनेवालेको अनेकान्तवादका स्वीकार किये विना अन्य कोई मार्ग ही नहीं मिल सकता। सांख्य भी स्याद्वादका स्वीकार करते हैं और वह इस प्रकार है मानते हैं कि प्रकृतिमें तीन गुण सत्व-रज, और तम (जो परस्पर विरुद्ध हैं ) रहते हैं । तथा एक ही प्रकृतिमै किसी अपेसास-संसारकी अपेक्षासे-प्रवर्तन. और किसी अपेक्षा-मोक्षकी अपेक्षासे निवर्तन, ये दो विरुद्ध धर्म रहते हैं ऐसा भी मानते हैं। इस प्रकार एक ही पदार्थमें दो विरुद्ध धर्मको मानते हुए सांख्य मतवाले अनेकान्तवादसे विमुख कैसे हो सकते हैं। सीमांसा-मतवाले अपने आप ही भिन्न रीतिसे एक और अनेकका प्ररुपण करके अनेकान्तवादको स्वीकारते हैं। अतः उनसे इस विषयमें कोई प्रश्न करनेका बाकी नहीं रहता। अथवा शब्द और उसका सम्बन्ध इन दोनोंका वे सर्वथा नित्यभाव ही मानते हैं इससे उन्हें इस विषयमें कुछ पूछना अवश्य है । वे कहते हैं कि 'नोदना' कार्यरुप अर्थको बतलानेवाली है और वह किसी प्रकारके काल-समयके सम्वन्धसे अलग रहनेवाली है । अव यदि
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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