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________________ प्रमाणवाद २०१ युक्तियाँ आकाशकुसुमवत् असत्य हैं। क्योंकि प्रमाण भी अपनी हदमें प्रमाणरुप हैं और पर हदमें अप्रमाणरुप हैं, ऐसा तो अनेकान्तमार्गवाले मानते ही हैं। सर्वश भी अपने पूर्णशानकी अपेक्षा सर्वश है और सांसारिक जीवोंके ज्ञानकी अपेक्षा असर्वज्ञ है। यदि सांसारिक जीवोंके ज्ञानकी अपेक्षासे भी वह सर्वज्ञ हो सकता हो तो फिर सांसारिक जीव ही क्यों न सर्वज्ञ कहे जाय ? अथवा वह सर्वज्ञ ही सांसारिक जीवोंके जैसा क्यों न माना जाय ? सिद्ध भी अपने कर्म परमाणुके संयोगकी अपेक्षासे सिद्ध है और दूसरे जीवके कर्मपरमाणुओंके संयोगकी अपेक्षासे-वह श्रसिद्ध है। यदि इस दूसरी अपेक्षासे भी वह सिद्ध कहलाता हो तो फिर जीव मात्र सिद्ध होना चाहिये । इसी प्रकार अनेकान्त मार्गपर दूसरोंके द्वारा ढकेले हुये आक्षेप जैले कि 'किया भी न किया, 'कहा भी न कहा, ' 'खाया भी न खाया,' इत्यादि सब निकम्मे और अयुक्त समझने चाहिये। यदि ऐसा कहा जाय कि सिद्धोंने जो कर्मका क्षय किया है वह एकान्त किया है या कथंचित्-किसी अपेक्षासे-किया है ? यदि यों कहा जाय कि एकान्तसे किया है तो अनेकान्तकी हानि होगी और यदि कथंचित् किया है ऐसा माना जाय तो सांसारिक जीवोंके समान सिद्धोका सिद्धत्व मिट जायगा । इस प्राक्षेपका जवाब इस प्रकार है सिद्धोंने भी अपने कर्मोका क्षय स्थिति, अनुभाग और प्रकतिकी अपेक्षासे किया है, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया है कि कर्मके अणुमात्रका समूल नाश कर डाला हो। किसी भी मनुष्यकी शक्ति नहीं कि किसी भी प्रकार परमाणुओका नाश कर सके। यदि ऐसा हो भी सकता हो तो फिर कितने एक समय वाद वस्तुमानका सर्वथा नाश होना चाहिये और संसार रीता हो जाना चाहिये । सिद्धोने सिर्फ इतना ही किया है कि जो कर्माणु उनसे लिप्त हो गये थे उन अणुओंसे वे वियुक्त हो गये, परन्तु अणु तो कायम ही रहे हैं। सिद्ध जिन अणुओसे जुदे पड़े हैं और अवसे कदापि फिर वैसे किसी भी परमाणुके साथ सम्वन्धमें न आयेंगे, इसी एक अपेक्षाले वे सिद्ध हुये हैं और सिद्ध कहलाते
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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