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________________ १८२ जैन दर्शन खास अपेक्षा रखता है। इससे जो जो गुण या स्वभाव पटके हैं वे भी एक प्रकारले घटके उपयोग में आ जाते हैं और इसी अपेक्षाले विचार किया जाय तो स्पष्टतया ही यह मालूम हो सकता है कि पट भी घटके साथ सम्बन्ध धारण किये हुये है, फिर चाहे वह सम्बन्ध नास्तित्व रुपमें ही क्यों न हो । यह वात सब ही जानते हैं कि घट, पटरुपमें नहीं है अतः घट और पटका एक दूसरेका परस्पर सम्बन्ध नास्तित्वरूपसे है इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं है । वहुतसे लोग तो इन घट पट वगैरह पदार्थोके विषयमें यह समझ रहे हैं कि ये समस्त पदार्थ परस्पर प्रभावरूप हैं, अर्थात् घट पटके अभावरूप है और पट घटके अभावरूप है, इसे लिये यहाँ पर यह मालम किया जाता है कि जो पट वगैरहके गुण या धर्म हैं उन सबका उपयोग एक अपेक्षाले घटके लिये भी होसत्ता है। यहाँ पर यह भी एक नियम है कि जिमका जिसके साथ सम्बन्ध होता है वे सब उसके पर्याय कहे जाते हैं । घटके रूप वगैरहका सम्बन्ध घटके साथ है अतः वे रूप वगैरह जैले घटके पर्याय कहलाते हैं वैसे ही पटके (वस्त्रक) धर्मों या गुणोंका भी सम्वध किसी अपेक्षाले घटके साथ होनेके कारण वे भी घटके ही पर्याय कहे जा सकते हैं। यदि वे पट-वगैरहके गुण या धर्म न होते तो घटके निजी पर्यायोंको भी स्वपर्यायतया किस तरह माना जा सकता था? क्योंकि जब हमारा और दुसरेका, ऐसे दो वस्तुयें होती हैं तव ही ऐसा व्यवहार हो सकता है, अर्थात् ये गुण घटके निजी हैं और वे गुण वूसरके हैं ऐसाव्यवहार हो सकता है और इस अपेक्षासे भी पट वगैरहके गुण या धर्म घटके उपयोगमें आ सकते हैं। इसी लिये ये परगुण भी घटकेसाथ सम्बन्ध रख सकते हैं। तथा पदार्थ मात्रका स्वभाव स्वतंत्र है-किसी पदार्थका स्वभाव दूसरे पदार्थके स्वभावके साथ निश्चित हुभा नहीं है । अतः जब किसी भी पदार्थका यथार्थ स्वरुप जानना हो । तव साथ ही यह भी जानना चाहिये कि दूसरे कौन २ से पदार्थ हैं और उनके स्वभाव कैसे कैसे हैं ? इस प्रकारकं ज्ञानके सिवाय कोई भी मनुष्य पदार्थका पृथकरण नहीं कर सकता, एवं उसके
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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