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________________ जैन दर्शन १७८ सम्बन्ध और ज्ञेय ज्ञापकका सम्बन्ध, इत्यादि असंख्य सम्वन्धोंकी अपेक्षासे भी एक एकके अनन्त धर्म जानलेने चाहियें । यहाँपर जो घटके अनन्तानन्त स्व और परपर्याय कथन किये हैं उन सबकी उत्पत्ति विनाश और स्थिरता वगैरह अनन्त कालमै अनन्त वार हुआ है, होता है और होगा, इस अपेक्षासे भी घटके अनन्त धर्म हो सकते हैं । इस प्रकार पीले वसे लेकर यहाँतक मात्र एक भाव की अपेक्षा घटके अनन्त धर्म समझलेने चाहियें। अभी तक द्रव्य, क्षेत्र, और काल आदिकी अपेक्षासे घटके जो स्व और पर धर्मकथन किये हैं उन दोनों धर्मोसहित घट कहा जाय ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा एक भी शब्द नहीं कि जो स्वयं एक ही होकर उन दोनों अनन्तानन्त धर्मोसहित घटको एक ही समयमै बतला सके। यदि इस कार्यके लिये किसी एक नये शब्दको ही उपस्थित किया जाय तथापि वह इन समस्त धर्मोसहित घटका एक ही समयमें बोध नहीं करा सकता। इन समस्त धर्मासहित घटकां एक वोध क्रमसे ही हो सकता है, अतः द्रव्य, क्षेत्र, और काल वगैरह की अपेक्षा घटमें वक्तव्य वक्तव्य धर्म भी हो सकता है और वह पूर्वमें कथन किये समान ऐसे अनन्त धर्मों और अन्य पदार्थोंसे जुदा होनेके कारण उस घटमें अवक्तव्य अनन्त परधर्म भी समा जाते हैं । इसी प्रकार जैसे एकले घटसे ही अनन्त धर्म बतलाये हैं वैसे ही पदार्थ मात्रमें याने आत्मा वगैरह में भी अनन्त धर्म घटा लेने चाहिये | आत्मामें वे धनन्त धर्म इस प्रकार हैं 1 चेतनत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातापन, शेय, ज्ञेयता, अमूर्तता, श्रसंयप्रदेशता, निश्चय रूपसे आठ प्रदेशता, लोकके प्रमाण में प्रदेशत्व, जीवत्व, अभव्यता, भव्यता परिणामीत्व, अपने शरीरमें व्यापी पन, ये समस्त श्रात्माके सहभावी ( आत्माके साथ निरन्तर रहनेवाले) धर्म हैं। तथा खुशी, शोक, सुख, दुःख मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, श्रवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, और केवलज्ञान, एवं चक्षुदर्शन, अचंक्षुदर्शन, देवत्व, नारकित्व, तिर्यचत्व और मनुष्यत्वं, समस्त पुद्गलोके साथ, शरीर आदिके द्वारा संयोग, अनादि अनन्तता, समस्त जीवोंके साथ समस्त प्रकारके सम्बन्धका धारकत्व, सांसा
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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