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________________ १६४ जैन दर्शन और इसरा परोक्ष, इस वातको इन्द्र भी नहीं फेर सकता। अव प्रमाणका लक्षण, प्रकार वगैरहको बतलाते हैं-- अपने और परके याने दूसरेके स्वरूपका निश्चय करानेवाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है उसमेके स्पष्ट ज्ञानका नाम प्रत्यक्ष प्रमाण है। उसके दो प्रकार हैं एक व्यावहारिक और दूसरा. पारमार्थिक । जो ज्ञान हमें इन्द्रिय आदिकी सामग्रीसे उत्पन्न होता है उसका नाम सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । वह ज्ञान क्षण क्षणमें व्यवहारमें आनेसे उसे सांव्यवहारिक कहते हैं और वह अपरमार्थरुप है । जो ज्ञान सिर्फ आत्माकी विद्यमानतासे ही उत्पन्न होता है जिसमें एक भी इन्द्रिय या मनकी जरूरत नहीं रहती उसे पारमार्थिक ज्ञान कहते हैं। उसके नाम अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान और केवल ज्ञान हैं। सांव्यावहारिक ज्ञानके दो प्रकार हैं एक इन्द्रियों से होनेवाला और दूसरा मनसे होनेवाला । इन दोनोंके एक एकके चार २ भेद हैं--अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा । . इन प्रत्येकका स्वरूप इस प्रकार है-अवग्रह याने सर्वथा कमसे कम और सर्वथा साधारणमें साधारण शान, अर्थात् इंद्रियों या पदार्थोंका रीतिपुरस्सार सम्बन्ध होते ही जो 'यह क्या?' या ' यह कुछ इस प्रकार व्यवहार में न पासके ऐसा ज्ञान हुये बाद इसी शानके द्वारा होनेवाले भासका नाम अवग्रह है । वह अवग्रहरूप ज्ञान निश्चयरुप ज्ञानका प्रथम सोपान है और उस अवग्रह ज्ञानमें पदार्थोंके जो सामान्य उपधर्म: हैं उनका और सर्वथा साधारण ऐसे जो विशेष धर्म हैं उन्हींका भास हो सकता है। यदि यथार्थ प्रवाह हुआ हो तो उसमें भ्रान्ति वगैरह नहीं रह सकते। अवग्रहमें भासमान होते हुये पदार्थ मात्र द्रव्यरूप और यथार्थरुप होते हैं। अवग्रह हुये बाद उसमें मालम हुई वस्तुके विषयमें संशय उत्पन्न होता है कि क्या यह अमुक होगा? या अमुक ? ऐसा संशय हुये वाद उस तरफ जो विशेप जाननेकी आकांक्षा-उत्सुकता होती है उसका .
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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