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________________ प्रमाणवाद १६१ उसके प्रथम ही देखने में गव्य श्राया । अब उस गवयको देख कर उसके मनसे यह विचार पैदा हुआ कि मेरी देखी हुई गाय इस पशुके समान मालूम होती है । अथवा मेरी देखी हुई गायके साथ यह पशु मिलता जुलता है, इस प्रकारके ज्ञानको मीमांसक मतवाले उपमान प्रमाण कहते हैं । अर्थात् इस दूसरे उपमान प्रमाणमें गवयका प्रत्यक्ष ज्ञान हुए बाद परोक्ष गायका स्मरण करना पड़ता है और ऐसा करके उस गायमें गवयकी समानताको प्रारोपित करना पड़ता है । यह गवय गायके समान है अथवा वह गाय इस गवयके समान है, इन दोनों ज्ञानका उपमान प्रमाण प्रत्यभिज्ञा' नामक शानमें समा जाता है। वह प्रत्यभिज्ञा भी एक प्रकारका परोक्ष प्रमाण है। अर्थात् उपमान प्रमाण एक तरहका परोक्ष ज्ञान है । अर्थापत्ति प्रमाणका स्वरूप इस तरह है-जैसे कि एक मनुष्य दिनमें भोजन न करता हो और शरीरले दृष्ट पुष्ट हो तो हमें यह कल्पना करनी पड़ेगी कि वह मनुष्य रातको जरूर खाता होगा, इस प्रमाणमें भी किसी प्रमाण द्वारा निश्चित की गई हकीकतसे उस दूसरी हकीकतको कल्पित करना पड़ता है, जिस प्रमाणके द्वारा निश्चित हुई वातका कुछ खास कारण होता है, जिसके विना प्रमाणले निश्चित हुई वात सम्भावित नहीं हो सकती। यह स्वरूप अर्थापत्ति प्रमाणका है ओर यह देखकर वह अनुमानसे जुदी नहीं पड़ सकती अतः उसका समावेश परोक्ष प्रमाणरुप अनुमानमें ही किया जाता है। जो लोग प्रभावको भी प्रमागरुप मानते हैं उन्हें हम यह पूछते हैं कि प्रभाव प्रमाणका क्या स्वरूप है ? पांचो प्रमाणोंका अभाव यह अभावप्रमाणरुप है? उसका दुसरा ज्ञान अभावप्रमाण है ? या शान रहित आत्मा यह अभाव प्रमाण है ? यदि इन पांचों प्रमाणोंके प्रभावको अभाव प्रमाणरुप माना जाय तो ठीक नहीं है। क्योकि प्रभाव असद्रूप होनेसे तुच्छ वस्तु है और ऐसा होनेसे वह वस्तु है अतः कंदापि अवस्तु ज्ञानका निमित्त नहीं हो सकती, इसलिये अंवस्तुरूप अभावको प्रमाण मानकर उसे ज्ञानका कारण कहना यह उचित नहीं है। वह स्थान घट रहित है' यदि इस प्रकारके वोधको ११
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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