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________________ प्रमाणवाद १५९ शास्त्र में प्रत्यक्ष कहा है, प्रत्यक्ष शब्दके इस प्रकारके विशाल अर्थमें जो शानं इन्द्रिय सिवाय भी स्पष्टतया हुआ हो वह भी समा जाता है। अथवा अर्थ याने जीव अर्थात् जो शान इन्द्रियोंकी सहायता विना मात्र जीव द्वारा होता है उसका नाम भी प्रत्यक्ष है और यह प्रत्यक्ष शब्दका दूसरा अर्थ है। . परोक्ष शब्दका अर्थ इस प्रकार है-जो ज्ञान इन्द्रियाँसे पर हो अथात् इन्द्रियोंके विना मात्र मनके द्वारा ही होनेवाला हो और अस्पष्ट हो उसे परोक्ष कहते हैं । ये दोनों ही प्रमाण अपनी २ मर्यादामें एक समान है परन्तु एक ऊंचा और दूसरा नीचा ऐसा नहीं। कितने एक लोग यह मानते हैं कि " अनुमान प्रमाणको सबले प्रत्यक्ष प्रमाणकी आवश्यकता पड़नेके कारण वह हलका है और प्रत्यक्ष प्रसाण बड़ा है " परन्तु यह कथन यथार्थ नहीं है। क्योंकि इन दोनों प्रमाणोंमेसे एक भी न्यूनाधिक सत्यता नहीं है, दोनों में एक समान ही सत्यता है। देखो ! मृग दौड़ता है' इस नास्यके द्वारा होते हुए पत्यक्ष ज्ञानका कारण परोक्ष प्रमाण है, अतः ऐसे अन्य भी कितने ही स्थानों में प्रत्यक्ष ज्ञानको परोक्ष प्रमाणकी आवश्यकता पड़नेके कारण परोक्ष प्रमाणको भी बड़ा गिनना चाहिये । तथा कुछ ऐसा एकान्त नियम नहीं कि सब जगह परोक्ष प्रमाणको प्रत्यक्ष प्रमाणकी गरज पड़ा ही करे । कहीं कहीं पर तो प्रत्यक्ष ज्ञानको परोक्ष ज्ञानकी भी गरज पड़ती हुई देखनमें चाती है। जैसे कि जीवका प्रत्यक्ष ज्ञान श्वासोच्छ्वाल श्रादि चिन्होंको देखकर अनुमान द्वारा ही हो सकता है । जिस वक्त कोई मनुष्य चार पाइ पर पड़ा हो और मृत्युके निकट ही पहुँचा हुआ हो उस वक्त उसमें ' जीव है या नहीं!' इस वातको जाननेके लिये पारंवार उसका श्वासोच्छ्वास देखना पड़ता है। इस, प्रकारका लोकव्यवहार सर्वप्रतीत है और इस व्यवहारमें स्पष्टतया जीवकी विद्यमानताको जाननेके लिये अनुमान प्रमाणकी गरज रखनी पड़ती है। तात्पर्य यह है कि इन दोनों प्रमाणों में एक जेष्ट और दूसरा कनिष्ट ऐसा कुछ नहीं है परन्तु वे दोनों अपनी अपनी हदमें जेष्ट
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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