SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ जैन दर्शन : तथा आपने जो यह फर्माया था कि थोड़े तपमें भी अनेक शक्तियोका मिश्रण होनेसे उसीके द्वारा कर्मका क्षय क्यों न हो सके ? यह भी ठीक है क्योंकि मोहका सर्वथा क्षय हुये वाद अन्तिम. समयमें अर्थात् अक्रिय अवस्थाके अन्तिम समयमें सर्वथा अल्प शुक्ल ध्यानरुप तप द्वारा समस्त काँका क्षय हो जाता है। इस वातकी सिद्धिमें जीवन्मुक्ति और परममुक्ति काफी है। परन्तु ऐसे थोड़े तपमें जो कर्मोंका नाश करनेकी शक्ति आती है । उसे प्राप्त करने में बहुत कुछ कायक्लेश सहन करना पड़ता है अनेक उपवास करने पड़ते हैं और मरणान्त कष्ट भी सहन करने पड़ते हैं। अतः सब ही तपोमें कुछ इस प्रकारकी शक्ति नहीं होती। इससे जहाँपर थोड़ासा तय हो वहाँ सर्वत्र कर्मक्षय होनेका दूषण लग नहीं सकता, इसलिये अन्त में यह मानना चाहिये कि स्थिर 'रहनेवाली शानकी धारा (अर्थात् विविध प्रकारके परिणामको प्राप्त करता हुआ भी स्थिर रहनेवाला आत्मा ) अनेक तरहके. तपके अनुष्ठानले मोक्षको प्राप्त कर सकता है और उसे ही अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, और अनन्त सुखमय मोक्ष मिल सकता है। स्त्री मोक्षवाद. मोक्षके सम्बन्धमे दिगम्बर जैन जिस प्रकारका अभिप्राय रखते हैं वह इस प्रकार है-वे कहते हैं कि श्वेताम्बर जैनोने मोक्षका जो स्वरूप कथन किया है वह विलकुल सत्य है, परन्तु ऐसा मोक्ष मात्र पुरुष ही प्राप्त कर सकते हैं । श्वेताम्बर भी मानते हैं कि इस प्रकारके मोक्षको नपुंसक श्रात्मा नहीं प्राप्त कर सकते। क्योंकि वे इतने दुर्बल होते हैं कि उनमें ऐसे उच्च स्थानको प्राप्त करनेकी शक्ति नहीं होती। वैसे ही हम भी (दिगंवर) कहते हैं कि त्रियाँ . बहुत ही दुर्बल होनेसे और नपुंसकोंके समान ही शक्ति विहीन होनेके कारण वे मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकती। इस वातका निराकरण श्वेताम्बर जैन इस प्रकार करते हैं
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy