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________________ १४० जैन दर्शन । वह सर्वत्र ही श्रात्मा और प्रकृतिका संयोग कराया करती हो तो फिर मुक्त हुये आत्माओंको भी प्रकृतिका वियोग किस तरह हो सके ? प्रकृति सर्वत्र रही हुई होनेके कारण प्रात्यामात्रका अपने साथ सम्बन्ध कराने में समर्थ है,अतः एक भी आत्मा उससे रहित' न होना चाहिये । अव यदि यह कहा जाय कि आत्मा स्वयं प्रक तिका संयोग करता है तो यह बात भी ठीक नहीं है । क्योंकि प्रात्मा स्वयं शुद्धचैतन्य स्वरुपवान होनेके कारण प्रकृतिको अपने साथ रखनेका विचार तक भी किस तरह करे? यदि कदाचित् आत्माका ऐसा विचार होता भी हो तो उसका कुछ कारण है या नहीं? और जो कारण माना जाय तो क्या वह प्रकृतिरूप है, या श्रात्माल्प? क्योंकि सांख्यमतवाले प्रकृति और प्रात्माके सिवाय तीसरी चीज नहीं मानते। यदि प्रकृतिको कारणल्प माना जाय तो फिर शुद्ध आत्माको प्रकृतिका सम्बन्ध करानेवाली प्रकृति है वैसे ही मुक्त हुये प्रात्माको भी वह प्रति अपने साथ क्यों न मिला सके ? क्योंकि आत्मा तो दोनों एक ही सरखेि हैं अतः एकके साथ संयोग कर सके और दूसरेके साथ न कर सके यह वात असंभवित है । यदि प्रकृतिके सम्बन्धका कारण आत्माको माना जाय तो वह आत्मा कि जो कारण रुपले कार्यमें आता है प्रकृति सहित है या प्रकृति रहित ? यदि वह श्रात्मा भी प्रकृति सहित हो तो उसके साथ प्रकृतिका सम्बन्ध किस तरह हुआ ? इस बातका जो उत्तर मिलेगा उसमें भी उपरोक्त ही प्रश्न उठेंगे। ऐसा होनेसे इस विषयका कहींपर भी निराकरण न हो सकेगा। यदि प्रकृतिके सम्बन्धले रहित आत्मा, आत्मा और प्रकृतिके लनका कारण बनता हो तो यह बात भी अनुचित है । क्याोके विशुद्वात्मा इस प्रकारकी उपाधि पड़ नहीं सकता और कदाचित् पड़े भी तो इस बातका भी कारण शोधना चाहिये और इस प्रकार कारण शोधते शोधते.कदापि अन्त नहीं आ सकता । अतः यह कारणपक्षकी हकीकत ठीक नहीं है । अव यदि यह माना जाय कि प्रकृति और श्रात्माके सम्बन्धका कुछ भी कारण नहीं, तो मुक्त. हुये आत्माका भी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध. क्यों न हो? तथा इस.
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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