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________________ चढ़ती जायगी और अध्ययन भी विस्तृत होता जायगा एवं दूसरे जैन महानुभावोंके परिचयसे मेरा अनुभव भी बढ़ता जायगा. परन्तु आपके ही कारण मुझे प्रथम सम्यक्त्व लाभ होनेसे मेरे 'आप ही आधगुरु हैं। दुनियामें वहुतसे विद्वान् होनेपर भी शिष्यको अपना गुरु ही सर्व श्रेष्ठ होता है। इस लिये शापही मुझे जैन'धमके प्रतॉकरूप हैं और अन्ततक वैसेही रहेंगे । मतलव . यह कि गुरुजीके ग्रन्थकी प्रस्तावना लिखना शिष्यके लिये अविनय ही है। पूज्य मुनि महाराजने सुझे प्रस्तावना लिखनेको कहा उसमें उनकी निगर्वता, उदारता, समभाव और मनःशुद्धि प्रतीत होती है । मैंने भी प्रस्तावनाके बदले उपोद्धात लिखना मजूर किया और इसी लिये किया कि पूज्य सुनिश्रीने समझाया कि यह काम धर्मप्रभावनाका है इसमें छोटे बड़ेका सवाल नहीं। यह दलील सुनते ही मैंने उपोद्धात लिखना मञ्जूर किया। सिरोभागमें दिए हुए श्लोकके द्वारा सद्गुरुको चन्दन करके अब कुछ उपोद्घातके वारेमें लिखता हूँ। पूज्य मुनि श्रीतिलक विजयजीके अनुवादके सम्बन्ध में अभिप्राय देनेकी कुछ आवश्यकता नहीं है 'आत्मतिलक ग्रन्थसोसायटी' 'और 'हिन्दी साहित्य ग्रन्थमाला' के द्वारा हिन्दी जगत आपसे सुपरिचित है। हिन्दी पाठकोंके सामने श्राप आजतक अच्छेमें "अच्छा वाङ्मय रखते आये हैं और अच्छे रूपमें । ग्रन्थकी भाषा और वाह्य स्वरुप शुद्ध तथा मनोहारी बनानेमें आप कोई भी कष्ट उठाना वाकी नहीं रखते । ग्रन्थोके विषयके सम्बन्धमें भी आपने परिस्थिति पर ध्यान दे कर रूढियोंको तोड़ डालनेमें धैर्य बताया। 'आपका लिखा हुआ 'गृहस्थ जीवन' बड़ा मनोरञ्जक है और सप्रमाण उदाहरणोंसे परिपूर्ण होनेके कारण वह सामाजिक 'स्थिति सुधारने में बड़ा उपयोगी निकला है। 'जैनदर्शन' ने तो 'आपकी कीर्तिमें और भी वृद्धि की है । हिन्दी भाषामें न्यायग्रन्थोंको शुटि है और इस ग्रन्थसे वह कुछ पूर्णसी हुई है। इस . ग्रन्थका प्रकाशनकार्य तो प्रत्यक्ष मैंने देखाही है। कागज पसन्द : करना, टाइप चुन कर लेना अनुवादमें योग्य शब्दोंकी योजना ।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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