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________________ जैन दर्शन रूपको हम नहीं देख सकते वैसे ही शब्दके रूपकी अत्यन्त वारीकता होनेसे वह भी हमारे देखनेमें नहीं पाता । इस प्रकार सर्व सीतसे शन्दकी पुद्गलता सावित हो चुकी है। अव अन्धकार और छाया ये भी पुद्गलरुप होनेले इसकी पुद्गलता इस प्रकार सावित की जा सकती है जैसे दीवार पुद्गलरुप है अतः वह आँखमें रही हुई देखनेकी शक्तिको आड़ कर सकती है वैले ही अन्धकार भी आँख रही हुई देखने की शक्तिको आड़ करनेवाला होनेसे पुद्गलरुप है। जैसे वस्त्र पुद्गलरूप है अतएव किसी भी वस्तुको वह आच्छादित कर सकता है वैसे ही अन्धकार भी वस्तुमात्रको आच्छादित करनेवाला होनेसे पुद्गलरूप है । इस प्रकार अन्धकारके पुद्गलपनमें किसी भी तरहका संदेह नहीं रहता। तथा जैसे शीतलवायु पुद्गलरुप है अतएव हमें ठण्डक देकर खुशी करता है वैसे ही छाया भी हमें ठण्डक देकर खुशी करनेवाली होनेले पुदलरुप है। इस युक्तिसे छायाका भी पुद्गलपन लावित हो सकता है। जैसे वाया और अन्धकार पुद्गलरुप हैं वैसे ही वस्तु मात्रकी प्रति छाया या प्रतिविम्व भी पुद्गलरूप हैं। क्योंकि वह बाया या प्रतिविम्ब प्रतिछाया घट आदिके समान आकारमान् है। अव कदाचित् यों कहा जाय कि यदि लीलेमें पड़ता हुआ प्रतिविम्ब भी पुद्गलरूप हो तो वे पुद्गल (प्रतिविन्धके परमाणु) ऐसे कठिन सीसेको भेदन करके उस तरफ किस तरह जा सके? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है-जैले कठिन शिलामें पानीके पुद्गल धुस जाते हैं कठिन लोहेसे अग्निके पुदल प्रवेश कर जाते हैं, और कठिन शरीरमें पानीके पुद्गल चले जाते हैं उसी प्रकार कठिन सीलेमें भी प्रतिविम्बके पुद्गल घुल जाते हैं। शिलाले पानी झरनेके कारण, लोहेका गोला लगता होनेके कारण और शरीरले प्रस्वेद निकलता होनेके कारण शिलामें पानी, लोहेलें अनि और शरीरमें भी पानीके पुद्गलोंकी विद्यमानता होना निर्विवाद है वैसे ही सीमेंभी हमारा प्रतिविस्व मालूम होनेले वह प्रतिविम्व पुद्गलरूप हो तव ही यह वात संघटित हो सकती है। आताप याने धूप तो पुद्गल
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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