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________________ १०४ जैन दर्शन यदि यहाँपर यह कहा जाय कि जीव पदार्थ रुपरहित होनेपर भी उसका उपयोग-गुण प्रत्यक्षतया मालम होनेके कारण उसका (रुप रहित जीवका) भी अस्तित्व माना जा सकता है। परन्तु चेतनरहित धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायको सर्वथा अरुपी होनेसे उनकी विद्यमानतामें किस तरह श्रद्धा रखी जाय? इस प्रश्नके उत्तर में मालूम किया जाता है कि जो वस्तु प्रत्यक्ष न देखी जा सकती हो उसका अस्तित्व ही न हो ऐसा कोई नियम नहीं। संसारमें पदार्थमात्रका न दीखना दो प्रकारले होता है-एक तो पदार्थ सर्वथा न हो और न देखा जाय, जैसे कि घोड़ेके सींग। और दूसरा पदार्थ सद्रूप हो तथापि देखा न जाय । जैसे जो पदार्थ विद्यमान हो तथापि देखने में न आवे उसके श्राउ प्रकार हैं। १ एक तो कोई भी पदार्थ बहुत दूर हो तो देखने में नहीं आता, कोई प्रवासी चलता चलता वहुत दूर चला जाय और फिर वह न देखनेमें आय तो हमसे यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि उस प्रवासीकी विद्यमानता ही नहीं है। इसी प्रकार समुद्रका किनारा विद्यमान होनेपर भी अतिदूर होनेके कारण देखने में नहीं आता, इससे वह है ही नहीं ऐसा कैसे कहा जाय ? पूर्वकालमें होनेवाले हम हमारे पूर्वजोको देख नहीं सकते इससे क्या हम यह कह सकते हैं कि वे हुये ही नहीं? एवं पिशाच वगैरहको हम देख नहीं सकते तो क्या इससे हम उसकी विद्यमानताका इन कार कर सकते हैं? ये सव दृष्टान्त अतिदूरके सम्बन्धमे हैं। पहले दो उदाहरण देशातिदूरको तीसरा उदाहरण कालातिदूरका और अन्तिम उदाहरण स्वभावतिदूरका है। २ जो वस्तु अति नजीक होती है वह भी नहीं देखी जा सकती हमारी आँखों में अंजन घाँजा हुआ होता है तथापि हम उस अंज नको देख नहीं सकते, क्योंकि वह अति नजीक है। इससे हम यह नहीं कह सकते कि हमारी आँखों में सुरमा ही नहीं। ३ इंद्रियका नाश होनेसे कितनी एक विद्यमान वस्तुओंको भी हम देख नहीं सकते । जैसे कि अन्धे मनुष्य रूप रंगको नहीं देख सकते और बधिर मनुष्य आवाज नहीं सुन सकते तो क्या इससे
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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