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________________ जीववाद १०१ काल ही है । इस तरह वर्तना, परिणाम और क्रिया वगैरहके व्यवहारोंसे मनुष्यलोकमें कालकी विद्यमानता मालूम होती है। मनुष्य लोकसे वाहरके विभागोंमें कालद्रव्यकी विद्यमानता मालूम नहीं देती। वहाँपर सद्रूप पदार्थ मात्र अपने आप ही उत्पन्न होते हैं, नाश होते हैं, और स्थिति करते हैं। वहाँके पदार्थों का अस्तित्व स्वाभाविक ही है, किन्तु उसमें कालकी अपेक्षा नहीं। वहाँपर हमारे समान एक जैसे पदार्थोकी कोई भी किया एक साथ न होनेके कारण उनकी किसी भी क्रियामें कालकी जरूरत नहीं पड़ती। एक जैसे पदार्थों में जो परिवर्तन एक साथ ही होता है उसीका कारण काल है परन्तु भिन्न २ पदार्थामें एक ही साथ होते हुये परिवर्तनका कारण काल नहीं हो सकता । क्योंकि उन भिन्न २ भावोंकी क्रियायें एक ही कालमें नहीं होती एवं नष्ट.भी नहीं होतीं। अतः मनुष्यलोकसे वाहरके विभागमें होते हुये किसी भी प्रकारके परिवर्तनका कारण काल नहीं हो सकता। वैसे ही वहाँपर जो छोटे बड़ोंका व्यवहार होता है वह स्थितिकी अपेक्षासे है और स्थिति विद्यमानताकी अपेक्षाले है एवं विद्यमानता स्वाभाविक है। अतः इस व्यवहारके लिये भी वहाँपर कालकी आवश्यकता मालूम नहीं देती। कितने आचार्य जो कालको खास तौरसे भिन्न द्रव्य नहीं मानते उनके मन्तव्यके अनुसार वर्तना और परिणाम वगैरह, पदार्थमान में होते हुये परिवर्तन हैं, और वह किसी पदार्थसे जुदा नहीं है अतः कालकी अपेक्षा नहीं रहती। . पुदल तत्व. तत्वार्थ सूत्रमें बतलाया है कि पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण-रूपवाले हैं। जहाँ जहाँपर स्पर्श हो वहाँ सब जगह रस, रूप और गन्ध भी होते हैं, इस प्रकारकी इन चारोंकी सहचारिता स्पष्ट मालूम होती है और यह सहचारिता बतलानेके लिये ही तत्वार्थके इस सूत्रमें सबसे पहले स्पर्शको रखा है, अतः पृथ्वीके ९ तत्वार्थ सूत्र अध्याय पाँचवेंका २३ वां सूत्र देखिये । “ स्पर्शरसंगष वर्णवंतः पुद्गलाः।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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