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________________ ९८ जैन दर्शन हैं। जो प्राचार्य कालको भी एक जुदा ही भाव मानते हैं उनके. मन्तव्यके अनुसार वह-द्रव्य है और वे धर्मास्तिकाय, मधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल इस तरह पांच हैं । जहांपर लोक नहीं है किन्तु मात्र एकला अलोक ही है वहांपर भी आकाश रहा हुआ है । अर्थात् लोक और अलोक इन दोनों में रहनेवाला यह एक आकाश द्रव्य ही है। अपने आप ही अवगाह (समास) प्राप्त करनेके लिये आतुर हुये जड़ और चेतन भावाको अवगाह देकर यह आकाश उपकार करता है, परन्तु जो जड़ और चेतन भाव अवगाह प्राप्त करनेकी. त्वरावाले नहीं हैं उन्हें उस प्रकार अवगाह नहीं देता। इस : अपेक्षासे जैसे मगरमत्स वगैरहको चालन क्रियामें पानी एक . असाधारण निमित्त कारण है त्यों यह आकाश भी अवगाह(अवकाश) देने में असाधारण निमित्त कारण है। कदाचित् यह कहा जाय कि जो आकाश अलोकके भागमें रहा हुआ है वह किसीको भी अवगाह-अवकाश नहीं दे सकता इस लिये उसे अवगाह देनेवाला किस तरह माना जाय? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है-यदि उस अलोकके भागमें भी गतिका कारण धर्मास्तिकाय और स्थितिका निमित्त अधर्मास्तिकाय रहे हुये होते तो जरूर आकाश अपनी अवगाह देनेकी शक्तिका उपयोग कर सकता, परन्तु वहाँपर (अलोक आकाशमें) ये दोनों द्रव्य न होनेके कारण अलोकके आकाशमे रहा हुआ भी अवगाह देनेका गुण प्रगट नहीं हो सकता। अर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मा १ इस उपरोक्त उल्लेखमें स्पष्ट प्रकारसे अधर्मास्तिकाय और प्राणातिपातहिंसा वगैरहकी सम पर्यायता बतलाई है और इसी कारण सूत्रकारका आशय भधर्मास्तिकाय और हिंसा वगैरहका समान भाव दर्शानेका हो ऐसा संभवित होता है । अर्थात् जब इस सूत्रमें अधर्मास्तिकायके सम्बन्धमें इस प्रकारका उल्लेख है तब इस सूत्र, दूसरे सूत्र और दूसरे ग्रन्थों में अधर्मास्तिकायके सम्बन्ध एक जड़ द्रव्य होनेकी व्याख्या भी जगह जगह देखनमें आती है, इससे इन दो व्याख्याओंमें कौनसी व्याख्या यथार्थ और अविकृत है यह वात बहुश्रुतोके. हाथमें है।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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