SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन 'इति जीववाद' जैन दर्शनमें अजीव तत्वकी व्याख्या और विभाग निम्न लिखे मुजव है-उपरोक प्रकारसे जीवके जो जो धर्म-स्वभाव-या गुण कहे हैं उससे विपरीत स्वभाववाले भावको अजीव कहते हैं। अर्थात् जिस भावमें सूलसे ही जानपन नहीं होता, जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श वगैरह गुण भिन्नतया और अभिन्नतया रहते हैं, जिसका पुनर्जन्म नहीं होता, जो पाप, पुण्य या किसी प्रकारके कर्मको नहीं करता और उसके फलको भोगता भी नहीं इस प्रकारका जो जड़रुप भाव है उसका नाम. अजीव है । वह अजीव तत्व पाँच प्रकारका है १ धर्म (धर्मास्तिकाय )२ अधर्मास्तिकाय ३ आकाशस्तिकाय ४काल ५ पुग्दलास्तिकाय।उनमें धर्मास्तिकायका स्वरूप इस प्रकार है यह धर्म नामका पदार्थ समस्त लोकमें चारों तरफ व्यापित होकर रहा हुआ है । यह नित्य है, याने कभी भी इसका स्वभाव पलटता नहीं है, स्थायी है याने इसमें कभी भी न्यूनाधिकता नहीं होती, रुप रहित है, अर्थात् विना आकारका है, और परमाणु जितने ही इसके असंख्य प्रदेश हैं एवं यह धर्मास्तिकाय नामक पदार्थ जड़ और चैतन्यको गति करनेमें सहाय करता है। जो जो वस्तु आकाशवाली हैं उन सबमें १ इस धर्मास्तिकाके पर्यायशब्दोका उल्लेख करते हुये श्री भगवतीजी ( व्याख्या प्रति ) सूत्रके २० वे शतकके दूसरे उद्देशकमें इस प्रकार लिखा है-धम्मात्थिकायस्मरणं भंते ! केवइया आभवयणावण्णता ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णता. तं जहा:-धम्मे तिवा, धम्मत्यि'काए इवा, पाणाइवाय वेरमणे ति वा, नुसावाय वरमणे ति वा, एवं जाव. परिग्गह वेरमणे ति वा, कोह विवेगे ति वा, जाव० मिच्छादसण सल्लविवगे तिवा, इरिया समिई ति वा, भाषा समि इति वा एसणा समि इति वा, आदा भंडमत्तनिक्खेवणा समिईति वा X मणुगुत्ती ति वा, वइगुत्ती तिवा, कायगुत्ती तिवा-जे यावऽणे तप्यगारा सव्वे ते 'धम्मत्यिकायस्स अभिवयणा."
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy