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________________ ९२ जैन दर्शन इस विषयमें मतभेद होनेका कोई कारण नहीं। इस प्रकार पृथ्वी पानी, वायु, असि, और वनस्पति, इन पांचोंमें चैतन्यकी विद्यमानता साबित हो सकती है और वह आकाश युक्तियों एवं प्रामाणिकतासे परिपूर्ण है। अथवा इन पांचोंमें चैतन्यका अस्तित्व पूर्वकालीन प्राप्त पुरुषोंने फरमाया है, अतः इन पांचोंको चैतन्य सहित मानने में जरा भी शंका करनेकी आवश्यकता नहीं है -1 अव जो जीव दो इंद्रियादि हैं-अर्थात् कृमि, चींटी भ्रमर, मछली, चिड़िया गाय और मनुष्य वगैरह हैं उनमें चैतन्यकी विद्यमानता प्रत्यक्ष जान पड़नेके कारण इस विषयके साथ सम्बन्ध रखनेवाली शंकाको जरा भी स्थान नहीं मिलता। अवजो लोग इस तरहकी प्रत्यक्ष सिद्ध वातके लिये भी मतभेद प्रकट करते हैं उनके. लिये भी यहाँपर कुछ कह देना उचित है। यदि कोइ यह कहनेका साहस करे कि दो इंद्रिय वगैरह जीवों में कुछ चैतन्य नहीं है । वे जीव जो कुछ विशेष जानते हैं वे इंद्रियोंके लिये ही जान सकते हैं। इस वातका समाधान ऊपर तो हो ही चुका है, तथापि यहाँपर फिरसे दर्शाते हैं-आत्मा इंद्रियोंसे सर्वथा भिन्न पदार्थ है। क्योंकि जो बात या वस्तु जिस इंद्रियद्वारा मालूम होती है और फिर उस इंद्रियके नाश होनेपर भी जो उसी बात या उस वस्तुका स्मरण जिसमें दृढ़तासे पड़ारहता है, जिसके द्वारा स्मरण किया जा सकता है वह वस्तु इंद्रियोंसे सर्वथा जुदी है और वही आत्मा है । यदि आत्मा इंद्रिय ही हो तो किसी भी एक इंद्रियका नाश होनेपर उसके द्वारा होनेवाले ज्ञानका भी नाश होना चाहिये । परन्तु ऐसा होता तो कहीं भी जाननेमें नहीं आता, अतः आत्मा इंद्रियोंसे भिन्न है यह वात सर्वथा निश्चित और निर्विवाद है। आत्मा इंद्रियोंसे सर्वथा भिन्न है इस वातका एक यह भी कारण है कि कितनी एक दफा किसी शक्तिकी असावधानताके लिये इंद्रियोंकी विद्यमानता होनेपर भी यथार्थ ज्ञान नहीं होता। यदि इंद्रियाँ ही आत्मा हो तो इंद्रियोंकी विद्यमानतामें कोई शक्ति असावधान हों तथापि उसमें ज्ञान होना चाहिये । परन्तु ऐसा भी कहीं नहीं जान पड़ता। अर्थात् हम भी बहुतसी दफा इस बातका अनुभव करते हैं कि
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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