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________________ द्वितीयोऽध्याय प्रात्मनश्चरमपुरुपार्थसिद्धिहि जैनदर्शनस्य प्रयोजनमितिपूर्वमुक्त । तसिद्धिश्चात्मेतरविवेकसाध्या । आत्मेतरविवेकस्तु तलक्षणप्रमाणनयनिक्षेपविना न कदाचिदपि संभवति । अत' पदार्थावबोधहेतूनामेतेषां चतुरणां विवेचनमावश्यकं । अतः सर्वतः प्रथममत्र लक्षणस्वरूपं प्रतिपाद्यते । लक्षणस्वरूपम् वस्तुव्यावृत्तिज्ञानहेतुर्लक्षणं, तद्विविधमात्मभूतमनात्मभूत च । यद् वस्तुस्वरूपात्मकं तदात्मभूतं, यथाऽग्नेरुप्णत्व,मात्मनश्चेतनत्वं, पुद्गलस्य रूपरसगधस्पर्शवत्वमित्यादि । उप्णत्व हि आत्मा को मोक्ष पुरुपार्थ की प्राप्ति हो-यही जैन दर्शन का अभिमत है-ऐसा पहले कहा है। मोक्ष की प्राप्ति स्व और पर के विवेक द्वारा संभव है। स्व और पर का विवेक तो उनके लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप के विना कभी संभव नही है। इसीलिए पदार्थो के ज्ञान के कारण इन चारो का कथन करना जरूरी है। इसलिए सबसे पहले यहां लक्षण का स्वरूप कहा जाता है। ‘लक्षण का स्वरूप बहुत सी मिली हुई वस्तुयो मे से एक वस्तु को अलग जताने का जो कारण है वह लक्षण है। वह लक्षण प्रात्मभूत, अनात्म-भूत से दो प्रकार का है। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हो वह आत्मभूत लक्षण है, जैसे अग्नि का लक्षण
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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