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________________ विशीर्यते साऽवषाकभावनिर्जरा। तेषा कर्मपुद्गलानामात्मनो गलनञ्च द्रव्यनिर्जरा इति कथ्यते । यथवागामिनां कर्मणां संवरो विषक्षस्तथैव सञ्चितानां विपक्षा निर्जरा भवति। मोक्षतत्त्वम्-सर्वेषां कर्मणां क्षयहेतुर्यः प्रात्मनः परिणामः स भावमोक्षः । कर्मणामात्मनः पृय गभवन तु द्रव्यमोक्षः । कः सर्वकर्मक्षयहेतुरितिचेत् - व्यवहारनयात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणरत्नत्रयमेव मोक्षस्य कारणम् । निश्चयनयात्तु तत्त्रयमयो निजात्मैव । यत आत्मान विहाय न कुत्राप्यन्यस्मिन् द्रव्ये रत्नअयं वर्तते ततः तत्त्रयमय प्रात्मैव मोक्षस्य हेतुरनुसंधेयः ।। - भी कहलाती है। और तप के द्वारा कर्म पुद्गल का झड़ना सो अविपाक भाव निर्जरा है। उन कर्म पुद्गलों का अपने पाप झड़मा वह द्रव्य निर्जरा है। जिस प्रकार नए पाने वाले कर्मों का संबर बिरोधी है उसी तरह संचित कर्मों की विरोधी निर्जरा - - - - मोम-तस्व आत्मा का जो चेतन परिणाम सम्पूर्ण कर्मों के क्षय का कारण है वहां भावमोक्ष है और कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना द्रव्य मोक्ष है। सब कर्मों के नाश का कारण क्या है तो उत्तर है:-व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र स्वरूप रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण है। निश्चय नय से तो रस्नत्रय स्वरूप निज प्रात्मा ही मोक्ष का कारण है। क्योंकि आत्मा को छोड़कर और किसी दूसरे द्रव्य मे रत्नत्रय नहीं रहता, अतः रत्नत्रय रूप पान्या ही मोक्ष का कारण स्वीकार किया जाना चाहिए। momemmun - Rame
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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