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________________ कालयम्-कालोहि वर्तनालक्षणः । यः स्वयं परिवर्तमानानां वस्तूनां परिवर्तनायां निमित्तकारणं भवति स एव काल । पदार्थाः हि स्वयं परिणमंते न च कालस्तान परिवर्तयितु प्रेरयति अपितूदासीनतया तत्र कारणं भवति । एप कालो द्विविध. परमार्थकालो व्यवहारकालश्च । व्यवहारकालोहि द्रव्यपरिवर्तनरूप: अयमेव मुख्यः कालः । एषोऽसंख्यकालाणुरूपः तेचासंख्यकालागवोनिष्क्रियाः प्रत्येकमेककस्मिन् लोकाकाशप्रदेशेऽवस्थिताः संति रत्नराशिवत् परस्परासंबद्धाः ।। व्यवहारकालस्तु परियामादिलक्षरणः । द्रव्यस्य धर्मान्तरनिवृतिधर्मान्तगेपजननरूपोऽपरिस्पन्दात्मकः पर्यायः परिणामः कालवण्य वर्तना लक्षण वाला काल द्रव्य है। स्वयमेव परिणमनशील द्रव्यों के परिणमन में जो सहकारी कारण होता है वहीं काल द्रव्य है । वस्तुतः पदार्थ स्वय परिगमन करते है काल उन्हे परिणमन करने के लिए प्रेरित नहीं करता-मात्र उदासीन रूप से वह कारण होता है । यह काल दो प्रकार का हैपरमार्थ काल और व्यवहार काल। परमार्थ काल द्रव्यों के परिवर्तन रूप है और यही मुख्य काल द्रव्य है। यह असंख्यात कालाणु रूप है और वे असख्यात कालाणु क्रिया रहित है और लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर रत्नो की राशि के समान एक एक स्थित हैं भौर उनका एक दूसरे से कोई सम्बन्ध नही है। व्यवहार काल परिणाम आदि लक्षण वाला है। द्रव्य की ऐसी पर्याय जो कि एक धर्म की निवृत्ति रूप हो और दूसरे धर्म की जनन रूप हो ऐसी जो हलन चलन रहित पर्याय है यह परिणाम है। जैसे जीव के क्रोध वगैरह, पुद्गल के रूप
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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