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________________ (२० ) यश्चात्मविमुखोऽविद्वान् पुद्गलद्रव्यमभिनंदति तदेवचात्मसात् कतुं प्रयतते, तत्संयोगे हर्पति तद्वियोगे च दुःखीयति तदेव च स्वात्मोन्नतिकारणमभिमन्यते तस्य वहिरात्मनः तत्वमनोकर्मरूपं पुद्गलद्रव्यं न कदाचिदपि सामीप्यं मुंचति । तस्य यद किचित् सौख्यं भवति तत् कर्माधीनं, सांतं, दुःखविमिश्रितं, पापबीजं च । अतो बहिरात्मत्वं विहायान्तरात्मत्वलब्धी प्रयत्नोविधेय । स एव धर्म्यशुक्लध्यानबलेनोत्तरोत्तरमात्मगुणस्थानान्यारोहति । बहिरात्मा तु प्रथमं मिथ्याष्टिगुणस्थानमेवनातिक्रमते । कर्मचेतनाकर्मफलचेतनाविष्ट एप ज्ञानचेतनाविरहितः कर्मकरणे कर्मफलभोगे चासक्तः न कदापि शान्तिमधिगच्छति । अंतरात्मा तु ज्ञानचेतनाभावितान्तःकरणः सम्यग्दृष्टि: कर्द___ आत्म ज्ञान से शून्य जो मूर्ख पुद्गल द्रव्य की प्रशंसा करता है और उसी को अपनाने का प्रयत्न करता है, उसके मिल जाने पर प्रसन्न होता है और उसके वियोग में दुखी होता है और उसीको आत्मा की उन्नति का कारण मानता है उस बहिरात्मा का कर्म नोकर्म रूप पुद्गल द्रव्य कभी साथ नहीं छोड़ता। उसे जो कुछ सुख मिलता है वह कर्मों के अधीन होता है, अन्त सहित होता है, दु.ख से मिला होता है और पाप का कारण होता है। इसलिये बहिरात्मपने को छोड़कर अन्तरात्मा बनने का प्रयत्न करना चाहिए। वही जीव धयंध्यान शुक्लध्यान के बल से अपने आगे आगे के गुणस्थान पर चढता है । बहिरात्मा तो पहले मिथ्यात्व गुरणस्थान से आगेही नहीं चढ़ता । ज्ञान चेतना से रहित यह बहिरात्मा कर्मचेतना और कर्मफल चेतना से ग्रस्त रहता हुआ कर्म करने और कर्म के फल भोगने मे आसक्त रहता है और कभी शांति प्राप्त नहीं करता । ज्ञान चेतना रूप है हृदय जिसका ऐसा
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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