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________________ L - ( १८ ) भारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तस्वातस्तथा ।' अनंतानंतधीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ।" कर्मबधनवद्ध एवात्मा यदा गुरूपदेशादभ्यासात स्वसवित्तेश्च स्वपरांतरं विजानाति तदा मोक्षाभिमुखो भवति । स एव च यदा संसारसौख्यमोक्षसौख्ययोर्वस्तुतोऽन्तरमनुभवति, तदैक तस्य स्वानुभूतिः प्राप्ता भवेत् । का स्वानुभूतिरितिचेत्, मनोविश्रांत्यात्मकः स्वोत्यसुखास्वाद एब सेति । एतादृशीमनुभूतिमनुभवत्यतरात्मा । वस्तुतस्तु वाह्यगुरूपदेशो निमित्तमा । तत स्वयमेवात्मना स्वोत्थाने बद्धपरिकरेण भवितव्यम् । अन्यया वाह्यनिमित्तं न किंचिदभिलषितं साधयेत् । निमित्तान्यन्वेषयंतो जना लौकिकामें रहने वाले प्रात्मा को नारकी जानता है। पर यात्मा वास्तव में ऐसा नहीं है। वह तो अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति का पुंज है, निश्चल है और स्वयं आत्मा के द्वारा ही जाना जाता है।" ( कर्मबंधन से जकडा हुया जीव ही जव गुरु के उपदेश, शास्त्रों के पठन पाठन और आत्मज्ञान के द्वारा स्व और पर के अन्तर को जानता है तब वह मोक्ष के सन्मुस होता है और वही जब ससार सुख और मोक्ष के सुख का वास्तविक भेद अनुभव करता है, तभी उसे स्वानुभूति प्राप्त होती है। स्वानुभूति क्या है ऐसा पूछो तो मन के विश्राम पूर्वक . आत्मा से उत्पन्न परम आह्लाद का स्वाद आना ही स्वानुभूति है। ऐसी अनुभूति अन्तरात्मा ही अनुभव करता है। वास्तव में तो बाह्य मे गुरु का उपदेश निमित्त मात्र ही है। इसलिए स्वयं प्रात्मा को ही अपने उत्थान के लिए तत्पर होना चाहिए, नही तो बाह्य निमित्त कुछ भी इच्छा पूर्ति नहीं - - - - -
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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