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________________ ( १२ ) विद्यते । यथा देवदत्त गृह एव तत्र सर्वत्रैव चोपलभ्यमानः स्वासाधारणभासुरत्वादिगुणः प्रदीपः तथा घायं तस्मात्तथेति । प्रात्मनोऽसाधारणगुणाश्च ज्ञानदर्शनसुखवीर्यलक्षणास्ते' च सर्वाङ्गीणास्तत्रैव चोपलभ्यते । ज्ञानं हि मेयबोधनात्मकं, दर्शनं निर्विकल्पक-सत्तालोचनात्मक, सुखमाह्लादनस्वरूपं, वीर्य तु ज्ञानसुखादिधारणात्मकशक्तिस्वरूपम् । तस्मादात्मा स्वशरीरप्रमाण एव युक्तिसमर्थितः । न चास्मेंद्रियमनोरूपः, द्रव्येद्रियद्रव्यमनसोः पुद्गलात्मकत्वेन जडत्वात् । इंद्रियादिविनाशेपि आत्मनोऽवस्थानात् । भावेन्द्रिय- भावमनसोस्तु आत्मभिन्नत्वाभावात् ।। रहता है। जैसे देवदत्त के घर मे ही अपने असाधारण प्रकाशकत्व आदि गुणों से युक्त दीपक सब जगह ही प्राप्त होता है, इसी तरह देवदत्त की आत्मा है। इसलिए देवदत्त की आत्मा उसके पूरे शरीर मे व्याप्त है। आत्मा के असाधारण गुण ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्य स्वरूप हैं और वे आत्मा में ही सर्वाङ्ग रूप व्याप्त पाये जाते हैं । ज्ञेय के जानने रूप लक्षणवाला ज्ञान कहलाता है । विकल्प रहित द्रव्य के अस्तित्व मात्र को ग्रहण करने वाला दर्शन कहा जाता है। आकुलता रहित परम आनन्द सुख का लक्षण है और ज्ञान सुख वगैरह धारण करने स्वरूप शक्ति को वीर्य कहते है। - इसलिए प्रात्मा स्वदेह प्रमाण ही युक्तियो से सिद्ध होता है। और आत्मा इन्द्रिय और मन रूप नहीं है, क्योंकि द्रव्येन्द्रिय और द्रव्य मन के पुद्गल होने से अचेतनता है, तथा द्रव्येन्द्रिय और द्रव्यमन के नाश हो जाने पर भी आत्मा का अस्तित्व रहता है । भावेन्द्रिय और भाव मन तो यास्मा से भिन्न न होने से आत्मरूप ही हैं। - - तथा द्रव्ये. जाने पर है । भावेहि
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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