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________________ शुद्धभावानां, शुद्धनिश्चयनयाच्च स्वकीयशुद्धभावानां कर्सा। मात्मनो यदि कतत्वं नांगीक्रियेत 'तहि तस्य भोक्तृत्वमपि न स्यात् । न च कर्तृत्वभोक्तृत्वयोः कश्चन विरोधः, अन्यथा भोक्तुर्भु जिक्रियायाः कर्तृत्वं न स्यात् । न चान्यस्य कर्तृत्वमन्यस्य भोक्तृत्वमन्यथा कृतनाशाडकृताभ्यागमप्रसंग: स्यात्, ततः आत्मनः कर्तृत्वं तर्कसिद्धम् । . .(स्वदेहपरिमाणत्वं-यावदयं जीवः कर्मभिर्न विमुच्यते तावत् स्वकर्मविपाकवशात् संसार एक परिभ्रमति। कदाचिन्मनुष्यः, कदाचिद्देव. कदाचिन्नारकः, कदाचिच्च तिर्यकसमुत्पद्यते । हिंसाऽसत्यस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाख्यरशुभैस्तद्विरतिरूपैः शुभैश्च आदि का कर्ता है । अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से रागद्वेष आदि अशुद्ध भावों का कुर्ता है, और शुद्ध निश्चयनय से अपने अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि शुद्ध भावों का कर्ता है। आत्मा का यदि कपिना स्वीकार न किया जाय तो उसके भोक्तापना भी नहीं होगा । कर्तापने में और भोक्तापने मे कोई विरोध होऐसी बात नही । नही तो भोक्ता के भूजिक्रिया ( भोगने रूप क्रिया) का कर्त्तापना भी नही हो सकेगा। अन्य कर्ता हो और अन्य भोक्ता हो-ऐसा कभी नही बनता। यदि ऐसा हो जाय तो किए हुए का नाश और नही किये हुए के आगमन का प्रसंग उपस्थित होगा। इसलिए आत्मा के कपिना तर्क से. सिद्ध है। स्वदेह परिमारणत्व-जब तक यह जीव कर्मों से छुटकारा नहीं पाता तब तक अपने कर्मों के फल से संसार में भ्रमण करता रहता है । कभी मनुष्य बनता है, कभी देव, कभी नारकी और कभी तिर्यञ्च बनता है। हिंसा, असत्य, चौरी, कुशील
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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