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________________ F ( १५७ ) स्यान्न तु नामनिक्षेपः । महावीरो महा-वीरोऽस्तीत्यत्र प्रथमं नाम नामनिक्षेपापेक्षया, द्वितीय तु भावनिक्षेपापेक्षया । कस्यचिद् वस्तुनोऽन्यवस्तुनि प्रतिष्ठा कृत्वा सोऽयमित्येष व्यास स्थापनान्यास प्राच्यते । तदतद्भावनामत' स्थापना द्विविधा | प्रथमा मूर्तिचित्रादौ परा चाक्षादी । मूर्तिमति मूर्तिरहिते वा वस्तुनि सोऽय राजेति स्थापनाराजा प्रोच्यते । ननु नामनिक्षेपेऽपि नामन्यासस्तथैव स्थापना निक्षेपेऽपि स एवेति कोऽनयोर्भेद इति चेदुच्यते apded है - वह नाम निक्षेप की अपेक्षा है और वीर होने से महावीर है तो भाव- निक्षेप की अपेक्षा है । अन्य वस्तु मे किसी वस्तु की कल्पना करके "वह यह है " ऐसी कल्पना को स्थापना- निक्षेप कहते हैं । वह स्थापना तदाकार और प्रतदाकार रूप से दो प्रकार की है। मूर्ति, चित्र वगैरह मे महावीर वगैरह की कल्पना तदाकार स्थापना है तो सतरंज के मोहरों मे हाथी घोडे वगैरह की कल्पना प्रतदाकार स्थापना है । मूर्तिमान् अथवा मूर्ति रहित वस्तु मे वह यह राजा है, यह स्थापना राजा कहलाता है । शका - नाम - निक्षेप मे भी नाम रखा जाता है उसी तरह स्थापना-निपेक्ष मे भी, फिर इन दोनों में क्या अन्तर है ? समाधान - नाम - निक्षेप मे आदर अनुग्रह बुद्धि नही होती, पर स्थापना- निक्षेप में होती है। निश्चय पूर्वक महावीर नाम वाले पुरुष का महावीर भगवान की तरह आदर सत्कार नही किया जाता लेकिन महावीर की प्रतिमा का तो महावीर की तरह स्तुति भक्ति पूजा उपासना वगैरह की ही जाती है । Ar
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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