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________________ ( १४८ ) जातितत्त्वमीमांसा मुक्त व्यवहितकाररणस्य रत्नत्रयस्यादिमं सम्यग्दर्शनं जात्याद्यहंकाराभावे न भवतीति जातिविषये किञ्चित् प्रस्तूयते । जातिर्हि सदृशपरिणामात्मिका । श्रव्यभिचारिणा सादृश्येनेकी कृतार्थात्मकत्वात्तस्याः । एतल्लक्षणापेक्षया कर्मसिद्धान्तानुसारेण तु पञ्चैव जातय एकेन्द्रियाद्याख्याः । मनुष्यत्व पशुत्वप्रभृतयो वा भवन्तु जातयः । किन्तु ब्राह्मणक्षत्रियादिजातिभेदकल्पनं ह्याचारमात्रभेदेन संजातं । वस्तुदृष्ट्या तु न काचिद ब्राह्मणीयाsन्या वा नियता तात्त्विकी जातिरस्ति । ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राणां चतुर्णामपि तत्त्वतः एकैव मानुषी जातिराचारेण तु तत्र भेदकल्पना संभूता । तथा चोक्तमाष जाति तत्त्व मीमांसा मुक्ति का साक्षात् कारण रत्नत्रय में से पहला जो सम्यग्दर्शन रत्न है, वह जाति वगैरह के अभिमान का जबतक खात्मा न हो, उत्पन्न नहीं होता इसलिये जाति के विषय मे कुछ प्ररूपण किया जा रहा है। निश्चय से समान परिणमन स्वरूपता को जाति कहते है क्योकि वह विरोधी समान धर्मों के द्वारा ग्रात्मा को एक रूप करती है । इस लक्षण की अपेक्षा से कर्म सिद्धान्त के अनुसार तो एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति श्रादि पाच ही जातियां हैं । प्रथवा मनुस्यत्व पशुत्व वगैरह जातियां हो सकती हैं। लेकिन ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जाति कल्पना तो निश्चय पूर्वक प्राचार भिन्नता से ही उत्पन्न हुई है। वास्तव मे तो ब्राह्मण या और कोई सचमुच नियत जाति नही है । ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र चारो की ही वास्तव में एक ही मनुष्य जाति है। मात्र प्रचार भिन्नता में वहा यह भेद कल्पना हो गई है। ऐसा ही
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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