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________________ (१४६ ) यथा यथा हृदि स्थैर्य करोति करुणा नृणाम् । तथा तथा विवेकश्री: परां प्रीति प्रकाशते ॥१०॥ यत्किचित् संसारे शरीरिणां दुःखशोकभयवीजम् । दौर्भाग्यादिसमस्तं तद्धिसासंभवं ज्ञेयम् ॥११॥ गान्त्यर्थ देवपूजार्थ यज्ञार्थमथवा नृभिः। कृतः प्राणभृतां पात: पातयत्यविलम्बितम् ।।१२॥ हिसैव दुर्गतेारं हिसैव दुरितार्णवः । हिसैव नरको घोरो हिसैव गहन तमः ।।१३।। सांख्यार्थे दु.खसंतानं मगलार्थेऽप्यमंगलम् । जीवितार्थे घवं मृत्यु कृता हिंसा प्रयच्छति ।।१४॥ जैसे जैसे मनुष्यों के हृदय में करुणा की स्थिरता होती है, वैसे वैसे विवेक रूपी लक्ष्मी परम प्रसन्नता को प्राप्त होती है ।।१०॥ ससार में प्राणियों के दुःख, शोक, भय तथा दुर्भाग्य वगैरह सब का एक मात्र कारण हिंसा को जानना चाहिये ॥११॥ मनुष्यों के द्वारा किया गया जो का घात चाहे वह गाति । के लिए हो या देवपूजा के लिये हो अथवा यज्ञ के लिये होमनुष्य का तत्काल पतन कर देता है ।।१२।१ . हिंसा ही दुर्गति का द्वार है, हिंसा ही पापों का समुद्र है। हिमा ही भयानक नरक है और हिसा ही सघन अन्धकार है ।१३१ सुख के लिये की गई हिंसा निश्चय से दुःख परम्परा को प्रदान करती है। कल्याण के लिये की गई हिसा अमंगल प्रदान करती है और जीवन के लिये की गई हिंसा नियम से मृत्यु को प्राप्त कराती है ।।१४।।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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