SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४४ ) न च हिपासंवलितं किञ्चिदनठानमाचारो वा धर्माय । . जैनाचारस्येयमेव विशेषता यत्तत्राल्यापि हिसामाना न विसरा तस्या अधर्मरूपत्वात् । धर्मस्याहिंसालक्षणत्वात, तथा चोक्त-... महिसा प्रशंसायाम्श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेपु समयेषु च ।। अहिंसालक्षणो धर्म अधर्मस्तद् विपर्यय. ॥१॥ अहिसव जगन्माताऽहिसैवानंदपद्धतिः । अहिसैव गतिः साध्वी श्रीरहिसैव शाश्वतो ॥गा । अहिसव शिव सूते दत्त च त्रिदिवश्रियम् । अहिंसैव हित कुर्याद् व्यसनानि निरस्यति ।।३।। परमाणोः पर नाल्पं न महद् गगनात्परम् । . ___यथाकिञ्चित्तथा धर्मो नाहिंसालक्षणात् परम् ।।४।। हिसा गभित कोई भी अनुष्ठान अथवा आचार धर्म के लिये नही होता । जैनाचार की यही विशेपता है कि उसमें हिसा का लेश मात्र भी सह्य नहीं है क्योकि वह अधर्म रूप है और धर्म का लक्षण अहिंसा रूप है। अहिसा की प्रशसा मे अन्य शास्त्रों में भी कहा है सम्पूर्ण शास्त्रों में और सब कालों मे यह सुना जाता है कि धर्म का लक्षण अहिंसा है और अधर्म का लक्षण हिंसा है ।।१।। अहिंसा ही ससार की माता है, अहिंसा ही आनन्द प्राप्ति का मार्ग है। अहिंसा ही श्रेष्ठ गति है और अहिंसा ही भविनाशी लक्ष्मी है ।।२।। • अहिसा ही कल्याण दायक है वही स्वर्ग का वैभव प्रदान करती है । अहिंसा ही सुख प्रदान करती है और दुःखों का खात्मा करती है ॥३॥ जैसे परमाणु से कोई छोटा नहीं होता और आकाश से कोई वडा नहीं होता। उसी प्रकार अहिंसा लक्षण रूप धर्म से बढकर कोई धर्म नहीं होता ॥४॥
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy