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________________ निःसृत्य यथायोग्यं स्थानं गच्छतीति सधनहनने न कश्चन दोष इति धनलवपिपामिताः खारपटिकाः भाषन्ते। ___ केचित्-यदि कश्चन बूभूक्षया मरणासन्नो भोजनार्थमायातहि तद्रभगवुद्धया स्वशरीरमांसदानमपि धर्माय जायत - इति निगदन्ति । इमे च सर्वेऽहिंसाभासा एव नत्वहिंसा । एतेषां स्वतो हिंसारूपत्वादननुकूलत्वाच्च । न च कदाप्यहिंसा हिंसाजन्या संभवेत् । यस्मैकस्मैचित्प्रयोजनाय येनकेनाऽपि प्रकारेण कृतं जीवहननं हिमेव। हिंसा द्विविधा-साकल्पिकी, असाकल्पिकी च । मनसा वाचा कर्मणा कृतकारितानुमोदनैश्च सकल्पाद् या हिंसा क्रियते सा कर देने पर उसमे रहने वाली प्रारमा उसमे से निकलकर यथायोग्य स्थान पर पहुंच जाती है। इसलिए धनवानो के मार देने में कोई दोष नही है। . कई कहते है कि अगर कोई भूख से मर रहा हो और अगर वह भोजन के लिए आवे ता उसकी रक्षा के खयाल से अपने शरीर का मांस देना भी धर्म का कारण है। ये सबकी सब मान्यताएँ अहिसा भास ही है न कि अहिसा। ये मान्यताएँ अपने आप मे हिसा रूप है और इसीलिए धर्म के प्रतिकूल है। तीनो कालों में भी कभी हिंसा से अहिंसा की आपत्ति नहीं हो सकती । चाहे जिस प्रयोजन के लिए अथवा जिस किसी प्रकार से किया गया जीवघात हिंसा ही है। हिंसा के दो प्रकार हैं-एक साकल्पिकी, दुसरी प्रसाकल्पिका मन वचन काय के द्वारा और कृत कारित अनुमोदना के बारा इरादा करके जो हिंसा की जाती है वह सांकल्पिको
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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