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________________ विवर्जयितुमशक्या', अदृश्यत्वात्तेषां । ते तु परस्परं संघर्षेऽपि नपाडामवाप्नुवन्ति । ततस्तेर्षा संघर्षेऽपि न परतः प्रारणव्यपरोपणसंभावना । तेषां स्यायुषः क्षयात् स्वयमेव मरणात् । ये तु स्थूलास्ते सयताचरणेन योगिना विवर्जयितुं शक्यन्ते इति न कदापि संयतात्मनो हिंसा संभवेत् । तस्यात्मपरिणती हिंसाप्रवृत्त्यभावात् कथ हिंसा स्यात् । पुण्यपापकारणं हि भावस्तथाचोक्तं - - __भावोहि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभ इति । भन्यच्च विष्वग्जीवचिते लोके,क्व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत? भावकसाधनौ बन्ध-मोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ।" - - चे दिखाई नहीं पड़ते। वे तो पापस' में टकरा कर भी पीड़ा का अनुभव नहीं करते। इसलिए उनके रोंदे जाने पर भी पर के द्वारा उनके प्राणों का उच्छेद नहीं होता। उनका तो अपनी आयु के नाश से ही मरण होता है। और जो स्थूल हैं वे संयमी साधु के द्वारा बचाए जाते ही हैं-इस तरह संयमी के कभी हिंसा नही होती। उसके भावों में हिसा की प्रवृत्ति न होने से हिंसा कैसे हो? भाव ही पुण्य मोर पाप के कारण होते है। जैसा कि कहा है- "शुभ भाव पुण्य का कारण है और अशुभ पाप का" । और भी यदि बन्ध और मोक्ष का एक मात्र कारण भाव नहीं माना जाता तो जीवों से लबालब भरे हुए इस संसार में किसी का भी मोक्ष नहीं होता।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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