SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२७ ) स्याऽपि प्रसक्तिरिति सङ्करः । सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः सङ्कर इत्यभिधानात् । येन रूपेण सत्त्व तेन रूपेरणासत्त्वमेव स्यान्न तु सत्वं, येन रूपेणासत्त्वं तेन सत्त्वमेव स्यान्नत्वसत्त्वमिति व्यतिकरः, परस्पर विषयगमनं व्यतिकर इति वचनात् । सत्त्वासत्त्वात्मकत्वे च वस्तुनः इदमित्थमेवेति निश्चेतुमशक्त संशयः । ततश्चानिश्चयरूपाऽप्रतिपत्ति.। तत सत्त्वासत्त्वात्मनो वस्तुनोभाव इति ।. . अत्रोच्यते-विरोधो हनुपलभसाध्यः । वस्तुनि स्वपररूपा जाना कही विराम न लेना ही अनवस्था दोष कहलाता है। जिस रूप से सत्व है उसी रूप से असत्व का भी प्रसग है और जिस रूप से असत्व है उसी रूप से सत्व की भी प्राप्ति है-इसलिए अनेकान्त संकर दोप से दूषित है; - क्योकि एक वस्तु मे एक ही समय मे सब धर्मों की प्राप्ति होना संकर दोप कहलाता है। जिस रूप से सत्त्व है उस रूप से असत्त्व ही रहेगा न कि सत्व और जिस रूप से असत्त्व है उस रूप से सत्व ही होगा न कि असत्त्व-इस तरह व्यतिकर दोष का प्रसग पाता है। क्योंकि परस्पर विपय गमन को ही व्यतिकर दोप कहते है। एवं एक ही पदार्थ सत्त्व असत्त्व दोनों रूप होने से यही है, इसी प्रकार है, ऐसा निश्चय न होने से संशय दोप आता है और जब बस्तु सशय दोष से ग्रसित है तो अनिश्चय रूप अप्रतिपत्ति नामका दोष आता है और उससे सत्त्व असत्त्व रूप वस्तु का ही प्रभाव हो जाता है। इस तरह अनेकान्तवाद पाठ दोषों से युक्त होने से कैसे समीचीन सिद्ध हो सकता है ? समाधान-अनेकान्त में कोई दोष नहीं आता। सर्वप्रथम विरोध दोप दिखाया गया है पर अनेकान्त में वह संभव नही
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy