SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२२ ) कान्तकल्पनया विधिप्रतिषेधयोरनिवार्यत्वात् । यदि सा न प्रवर्तते तहि निखिलं वस्तु सप्तभङ्गीसमाक्रान्तमिति सिद्धान्तज्याधातः इति चेन्न, प्रमाणनयविवक्षाभेदात्तत्रापि तत्प्रवृत्त। तथाहि-एकान्तो द्विविधः सम्यगेकान्तो मिथ्यकान्तश्चेति । । अनेकान्तोऽपि द्विविधः सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्तश्चेति । तत्र सम्यगेकान्तस्तावत्-प्रमाणविषयीभूतानेकधर्मात्मकवस्तुनिष्ठैकधर्मगोचरी अन्तिरानिपेधकः । मिथ्यकान्तस्त्वेकधर्ममात्रावधारणेनान्याशेषधर्मनिराकरणपरः । एवमेकत्र वस्तुन्यस्तित्वनास्तित्वादिनानाधर्मनिरूपणप्रवणः प्रत्यक्षानुमानागमाविरुद्धः कल्पना करने से विधि निषेध बराबर चलेगे और कहीं विधाम न मिलने से अनवस्था दोष से कैसे बचा जा सकेगा? और यदि दूसरा पक्ष स्वीकार करो अर्थात अनेकान्त में सप्त भंगी की प्रवृत्ति नहीं होती तो सम्पूर्ण वस्तु समूह सप्तभंगी न्याय से संबद्ध है-इस सिद्धान्त का व्याघात होगा? समाधान-ऐसा कहना सगत नही। क्योंकि प्रमाण एव, नय के भेद से अनेकान्त मे भी विधि-निषेध-कल्पना से सप्तभगी. न्याय की अनेकान्त मे भी सिद्धि हो जाती है। वह सिद्धि इस प्रकार है-जैसे एकान्त के दो भेद है, पहला सम्यक एकान्त और दूसरा मिथ्या एकान्त । इसी तरह अनेकान्त के भी दो प्रकार हैएक सम्यक् अनेकान्त और दूसरा मिथ्या अनेकान्त । सम्यक एकान्त वह है जो अनेक धर्मात्मक पदार्थ के किसी एक धर्म का व्याख्यान करे परन्तु अवशिष्ट अन्य धर्मों का निराकरण न करे। और मिथ्या एकान्त उसे कहते हैं जो पदार्थ के एक ही धर्म को कहे तथा अन्य शेप धर्मों का निषेध करे। इसी तरह प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम प्रमाण से अविरुद्ध एक वस्तु में अनेक धों का निरूपण करनेवाला सम्यक अनेकान्त है। एवं प्रत्यक्षादि
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy