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________________ ( १०७ ) 1 स्यानास्ति चावक्तव्यश्च स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च । इमे सप्तापि भंगा एकस्मिन्न व वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पनया प्रश्नवशादवतारयितुं शक्यन्ते । तथा चाहुर कलङ्कदेवा - "प्रश्नवशादेकत्र वस्तुनि श्रविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी ।" ननु प्रश्नानां सप्तविधत्व कथमिति चेत्, जिज्ञासानां सप्तविधत्वात् । ननु कुतः सप्तधैव जिज्ञासेतिचेत्, सप्तधा संशयानामुत्पत्त े' संशयाना सप्तविधत्व तु तद्विषयीभूतधर्माणां सप्तविधत्वात् । तादृशधर्माश्च कथञ्चित्सत्त्व, कथंचिदसत्त्वं, क्रमापितोभयं प्रवक्तव्यत्व, कथचित्सत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वं कथंचिद " 3 किसी अपेक्षा से अस्ति रूप और प्रवक्तव्य रूप ही है (६) स्याम्नास्ति चावक्तव्यश्च अर्थात् घट किसी अपेक्षा से नास्ति - रूप भौर - अवक्तव्य ही है (७) स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च अर्थात् घट किसी अपेक्षा से अस्ति नास्ति रूप और प्रवक्तव्य ही है । ये सातो भंग एक ही वस्तु मे प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधा रहित विधि निषेध रूप कल्पना के द्वारा प्रश्न होने पर प्रयुक्त किए जा सकते हैं। ऐसा ही प्रकलंक देव ने भी कहा है: - एक ही पदार्थ मे प्रश्न होने पर प्रत्यक्षादि प्रमारणों से अविरुद्ध विधि और निषेध की कल्पना करना सप्तभगी कहलाती है । प्रश्न सात ही क्यों तो उत्तर है कि जिज्ञासा सातं ही प्रकार को होती है । जिज्ञासा भी सात ही क्यो - इसलिए कि सराय सात ही प्रकार के होते है और सशय के भी सात ही प्रकार का जवाब सशय के विषयभूत वस्तु धर्मो का सात ही होना है । वस्तु के वे सात धर्म निम्न प्रकार है-कथचित्सत्त्व (किसी अपेक्षा ग्रस्तित्व ) कथचिदसत्व ( किसी ग्रपेक्षा नास्तित्व) क्रमापितोभग ( क्रम से दोनों को विवक्षा होने पर ग्रस्तिनास्तित्व }
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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