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________________ ( १०४ ) कान्तशासनं लोकव्यवहारे प्रतीतिसिद्धम् । तथैव शास्त्रे पदार्थानां नित्यत्वानित्यत्वादिविचारावसरेऽस्योपयोगो भवत्येवानाहूतोऽ पि । न खलु यो द्रव्यापेक्षया नित्यः स पर्यायापेक्षयाऽपि नित्यः स्यात् । अन्यथा सुवर्णवत् तन्निर्मिताभूषणस्यापि नित्यत्वं भवेत् । तथैव यः पर्यायापेक्षयाऽनित्यः स न द्रव्यापेक्षयाऽपि श्रनित्योऽ न्यथाऽऽभूपरणवत् काञ्चनस्याऽपि विनाशो भवेत् । वस्तु सामांन्यात्मना नोदेति, विशेषात्मना तु व्येति उदेति च । न खलु काञ्चनं काञ्चनत्वेन समुत्पद्यते, ग्राभूषणत्वेन तु समुत्पद्यले विनश्यति च । तत एवोत्पादव्यय धौव्यत्रयमेकत्र युगपत् संभवति । घटमौलि सुवर्णार्थी जनोऽयं घटनाशमौल्युत्पादसुवर्णस्थि अन्तर है - इस प्रकार लोक व्यवहार में हर जगह अनेकान्तवाद का शासन अनुभव सिद्ध है । लोक व्यवहार की तरह उस स्याद्वाद, का उपयोग शास्त्रों में भी पदार्थों के नित्यत्व अनित्यत्व मादि धर्मों का विचार करते हुए बिना बुलाए भी होता ही है । क्योकि जो द्रव्य की अपेक्षा नित्य है वह वास्तव में पर्याय की पेक्षा कभी नित्य नही हो सकता । यदि हो जावे तो सोने की तरह उसके द्वारा बने हुए गहने भी नित्य सिद्ध होगे । इसी प्रकार जो पर्याय की अपेक्षा मनित्य है वह द्रव्य की अपेक्षा भी नित्य नहीं हो सकता नही तो गहने की तरह स्वर्ण के भो विनाश का अवसर समुपस्थित होगा । वस्तु सामान्य रूप से पैदा नही होती लेकिन विशेष रूप से तो पैदा भी होती हैं और नष्ट भी होती है। निश्चय पूर्वक स्वर्ण स्वर्णंपने से पैदा नही होता, गहने रूप से तो पैदा भी होता है और नष्ट भी होता है । इसीलिए एक ही वस्तु में एक साथ उत्पाद व्यय धौव्य तीनों घटित होते हैं । घटार्थी, मुकुटार्थी तथा सुवर्णार्थी व्यक्ति स्वं घट के नाश होने पर मुकुट के उत्पाद होने पर, "
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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