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________________ (१०२ ) सप्तभंगनयापेक्ष. स्वभावपरभावाभ्या वस्तुनः सदसदादिव्य स्था प्रतिपादयति । वस्तु हि न केवल सत्, नापि केवलमसत, अपि तु सदसदात्मक द्रव्यपर्यायात्मक सामान्यविशेषात्मक नित्यानित्यात्मकमस्ति । वस्तुन उभयात्मकत्वं तद्विस्तरतः सप्तभगात्मकत्व च प्रतीतिसिद्धं । स्याद्वादो हि जैनागमस्य बीज । तत्र वस्तुव्यवस्थाया सर्वत्राग्याप्रतिहतव्यापारस्वीकारात् । एतदवलम्बनेनासत्यमपि सत्यं स्यात् । एतत्तिरस्कारे तु सत्यमप्यसत्यमिति । निराग्रहवादोऽयं सर्वान् विग्रहान् निराकतुं क्षमः । एतदुपयोगेन असमीचीनवद् दृश्यमानान्यपि समीचीनता भजन्ते । एतदभावे तु न कदाचिदपि सत्यदर्शन भवेत् । यथा धडन्धाः हस्तिनः पुच्छपादमस्तकाद्यव-' यवान् परिगृह्य तस्यान्यथाकल्पनां चक्रुस्तथैव स्याद्वादचक्षुविर की अपेक्षा स्वभाव परभावों से वस्तु के सत् असत् वगैरह भावों का कथन करता है। वस्तुं मात्र सत्स्वरूप नहीं है और न असत् स्वरूप ही, बल्कि सत असत् रूप, द्रव्य पर्याय रूप, सामान्य विशेष रूप और नित्य अनित्य रूप है। वस्तु का उभयात्मक होना और विस्तार से सप्तभगात्मक होना अनुभव सिद्ध है। वस्तुत. स्याद्वाद जैनागम का बीज है। जैनागम मे वस्तु की सिद्धि करते हुए इस स्याद्वाद का सब जगह अवाध सचार स्वीकार किया है। स्याद्वाद के प्रयोग से असत्य भी सत्य हो जाता है और इसके दुरदुराने पर सत्य भी असत्य हो जाता है। यह सिद्धान्त ग्राग्रहवाद से रहित है अर्थात् इसमें हठवाद का स्थान नही, इसलिए यह सब झगड़े-टन्टो को मिटाने में समर्थ है। इसको प्रयोग में लाने से बुरे से दिखलाई पड़ने वाले भी भले दिखाई देने लगते हैं और इसके अभाव में तो कभी सत्य का साक्षात्कार ही नही हो सकता। जिस प्रकार छह अन्धों ने हाथी की पूछ पैर माथा वगैरह अगो को पकड कर
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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