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________________ (६७ ) भेदस्य निरर्थकत्व स्यात् । इन्दनादिन्द्र , शकनाच्छकः, पूर्दारपात् पुरदर' इत्यादिषु शब्दभेदादर्थभेदोऽप्यस्त्येव । अथवा नानाऽर्थान् समतीत्यैकमर्थमाभिमूख्येन रूढ., समभिरूढः, यथा गोरित्यय शब्दो यद्यपि वागाद्यनेकार्थेषु वर्तते तथापि पशुविशेपे रूढः । अथवा यो यत्र वर्तते स तत्र समेत्याभिरूढः समभिरूढ़ः, यथा क्व भवानास्ते, स आह आत्मनीति । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्तिः स्यात् ज्ञानादीना रूपादीना चाकाशे वृत्तिर्भवेत् । पर्यायनानात्वमन्तरेणापीन्द्रादिभेदकथन समभिरूढाभासः । क्रियाश्रयेण भेदप्ररूपणमेवंभूतः । एतन्नयापेक्षया स्वाभिधेयक्रियापरिणतिक्षण एव स शब्दो युज्यते नान्यदा। यदैवेन्दति की अपेक्षा से इन्द्र शब्द, शासन क्रिया की अपेक्षा से शक शब्द, पूरण क्रिया की अपेक्षा से पुरन्दर शब्द- इन पर्यायवाची शब्दों मे शब्द के भेद से अर्थ भेद भी है ही। अथवा अनेक अर्थो को छोडकर के जो एक ही अर्थ में प्रसिद्ध हो उसको जाने या कहे सो समभिरूढ नय है। जैसे गो शब्द के गमन आदि अनेक अर्थ होते है तथापि मुख्यता से गाय ही ग्रहण होता है। अथवा जो जहां रहता है वह वहा पूर्ण रूप से अवस्थित है वह समभिरूढ नय है। जैसे आप कहां रहते है, वह कहता हैमात्मा में। अगर अन्य की अन्य जगह स्थिति हो तो ज्ञान वगैरह तथा रूपादि का आकाश में रहना हो जायगा । पदार्थ को एकान्त रूप मानकर भी इन्द्रादि शब्दों का भेद कथन करना समभिरूढाभास है। पदार्थ जिस समय जिस क्रिया में परिणत हो उसको उस काल में उसी नाम से कहे या जाने उसे एवंभूत नय कहते है। इस नय की अपेक्षा से शब्द का जो कुछ अभिधेय है वैसी ही क्रिया करते हुए उस शब्द का प्रयोग किया जा सकता है अन्य समय में नही । जव इन्द्र परम ऐश्वर्य सहित हो तभी उसे इन्द्र
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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