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________________ नास्ति तत्र निरर्थकमेतद्वय । तथा चोक्तम्) अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । ___ इद बौद्धानुद्दिश्य । नैयायिकान् प्रति तु (६)अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः । 178) नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र कि तत्र पञ्चभिः । एष हेतुःसंक्षेपतो द्विविधः । विधिरूपः प्रतिपेधरूपश्चेति । विधिरूपोऽपि द्विविधो, विधिसाधकः प्रतिषेधसाधकश्चेति । तत्र प्रथमोऽनेकविधः-कश्चित्कार्यरूपः यथा पर्वतो वह्निमान् धूमवत्वादिति । कश्चित् कारणरूपो यथा वृष्टिर्भविष्यति विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेरिति । कश्चिद्विशेषरूपो यथा वृक्षोऽयं निम्ब दोनो ही व्यर्थ है। ऐसा ही बौद्धो को लक्ष्य करके पात्र स्वामी ने कहा है “जहा अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव है वहा त्रैरूप्य मानने से कोई हित नही और जहा अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहा त्रिरूपता होने पर भी वह हेतु असमीचीन ही है, अतः व्यर्थ है। नैयायिकों को लक्ष्य करके प्राचार्य विद्यानन्द ने भी कहा है: जहा अन्यथानुपपन्नत्व है वहा पच रूप मानने से क्या लाभ है मोर जहां अन्यथानुपपन्नत्व नही है-वहा पच रूपस्व रहकर भी व्यर्थ ही है। यह हेतु सक्षैप से दो प्रकार का है-विधि रूप और प्रतिषेध रूप । विधि रूप भी विधि साधक और प्रतिषेध साधक से दो प्रकार का है। इनमें पहला अनेक प्रकार का है। कोई कर्मरूप होता है-जैसे पर्वत अग्नि वाला है घुमवाला होने से । कोई कारण रूप होता है- जैसे वर्षा होगी अन्यथा ऐसे विशिष्ट बादल उत्पन्न नही होते। कोई विशेष रूप होता है-जैसे यह
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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