SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { ८० ) प्रवर्त्तमानो वचनव्यवहारो वीतरागकथा । वादस्तु विजिगीपु-. कथारूपः, तस्मिन् न पूर्वोक्तावयवाधिक्यस्य प्रयोजनं । वीतरागकथाया तु शिष्यानुरोधेन द्वौ वा त्रयो वा चत्वारो वा पञ्च वा अवयवा भवन्ति । "प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधत" इत्युक्तत्वात् । के ते पञ्चावयवा इति चेत्, पर्वतो वह्निमानितिप्रतिज्ञा, धूमवत्त्वादितिहेतुः, यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निर्यथा महानसः, यत्र वह्निर्नास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति यथा महाहदः, इति उदाहरणं । धूमवाश्चायमित्युपनयः, तस्माद् वह्निमानितिनिगमनम् । ननु भवद्भिरुक्तमन्यथानुपपत्त्येकलक्षण साधनं; किन्तु तत् त्रिरूपं पंचरूप वास्तु । पक्षधर्मसपक्षसत्वविपक्षव्यावृत्तयो हि वह वीतराग कथा है । विजिगीपुकथा वादकथा है- उसमें तो पूर्व चचित दो अवयवो से अधिक की कोई जरूरत नहीं है। वीतराग कथा मे तो शिष्य की योग्यता भेद से दो या तीन या चार अथवा पांच भी अवयव माने जा सकते है । "अवयवों के प्रयोग का तरीका तो शिप्य की योग्यता के आधार पर होता है"-ऐसा शास्त्रो मे कहा गया है । उन पाच अवयवो का प्रयोग इस प्रकार है । पर्वत अग्निवाला है-यह प्रतिज्ञा है। धूमवाला होने से यह हेतु है । जहां जहां धूवां है वहा वहां अग्नि है जैसे कि रसोईघर-जहा जहा अग्नि नहीं है वहा वहा धूवां भी नहीं है जैसे कि तालाव-यह उदाहरण है । यह पर्वत भी वूम वाला है- यह उपनय है। इसलिए अग्नि वाला है-यह निगमन है। शंका-आपने हेतु का लक्षण एक मात्र अन्यथानुपपत्ति कहा है अर्थात् हेतु का साध्य के अभाव मे कभी नही पाया जाना। लेकिन वह हेतु तीन रूप वाला या पाच रूप वाला हो इसमे पापको क्या आपत्ति है। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्ष व्यावृत्ति पे हेतु के तीन रूप है और इन तीनों से संयुक्त अवाधित
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy