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________________ ननु पर्व वज्ञानगृहीतविपयग्राहकत्वादेतेषा धारावाहिकावदप्रामाण्यप्रमग इति चेन्न विषयभेदेनागृहीतग्राहकत्वात् एतदवग्रहादिचतुष्टय यदेन्द्रियेण जन्यते तदेन्द्रियप्रत्यक्षमित्युच्यते । यदा पुनरनिन्द्रियेण (मनसा) तदाऽनिन्द्रियप्रत्यक्षमभिधीयते। इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि, अतीन्द्रिय तु मनः तद्वयहेतुकमिद लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धत्वात् साव्यवहारिकप्रत्यक्षमित्युच्यते। तदुक्त "इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्त देशतः साव्यवहारिक"। इद चामुख्यप्रत्यक्षमुपचारसिद्धत्वात् वस्तुतस्तु परोक्षमेव, इन्द्रियजन्यत्वेन मतिज्ञानत्वात् ।। ननु प्रत्यक्षस्येन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वमेव कथं, अर्थालोक शंका -प्रवग्रहादि ज्ञान पहले पहले ज्ञान के द्वारा गृहीत पदार्थ को ग्रहण करते है अत धारावाहिक ज्ञान की तरह ये भी अप्रमाण है। समाधान -ऐसा नहीं है। भिन्न विषय होने से ये गृहीत ग्राही नही अपितु अग्रहीत-ग्राही ही है । ये अवग्रहादि चारो जव इन्द्रिय से पैदा होते है तो इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाते है । और जब मन से पैदा होते है तो अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहे जाते है। इन्द्रिया स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण है और अनिन्द्रिय मन है, इन दोनो के निमित्त से लोक व्यवहार में यह प्रत्यक्ष प्रसिद्ध होने से इसे साव्यवहारिक प्रत्यक्ष कह दिया गया है। यही कहा है "इन्द्रिय और मन के निमित्त से पैदा होने वाला एक देश निर्मल ज्ञान साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है।" यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष उपचार सिद्ध होने से मुख्य प्रत्यक्ष नहीं है, वास्तव में तो यह परोक्ष ही है, इन्द्रियों से पैदा होने के कारण मतिज्ञान रूप होने से। शंका-प्रत्यक्ष का कारण इन्द्रिय और मन को ही क्यों
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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