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________________ ( ५७ ) शक्ताना तेषां परावभासकरवायोगः । ज्ञानं तु स्वपरावभासक स्वानुभवसिद्ध । तथा च स्वपरावभासनसमर्थ सविकल्पकमगृहीतग्राहक सम्यग्ज्ञानमेवाज्ञानमर्थे निवर्तयत् प्रमाणमिति । यत्तु स्वासवेदकं निर्विकल्पक गृहीतग्राहकमज्ञानरूपञ्च न तत् कथंचिद् प्रमारणं, तथा चोक्त न्यायसूत्रकारेण माणिक्यनंदिना"अस्वसंविदितगृहीतार्थ-दर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः" । अत्रादिपदेन विपर्ययानध्यवसाययोरपि ग्रहणम् । संशयो हि प्रमाणासिद्धानेककोटिस्पर्शात्मक' प्रत्ययः, यथा स्थारगुर्बा पुरुपो वेति । अस्ति च नास्ति च वट: नित्यश्चानित्यश्चात्मेत्यादी अनेककोटिस्पर्शात्मकप्रत्ययत्वे सत्यपि प्रमाणसिद्ध मंभव नहीं । ज्ञान तो अपना और पर का ज्ञान कराने वाला है यह अपने अपने अनुभव से सिद्ध है। इसलिए स्व तथा पर के जनाने में समर्थ, सविकल्पक रूप से अपूर्व पदार्थ को जानने वाला सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, क्योकि वही पदार्थ सम्बन्धी अज्ञान को दूर करता है । और जो अपने को नहीं जानने वाला, निर्विकल्पक, गृहीत पदार्थ को ग्रहण करने वाला और अज्ञान रूप है-वह किसी भी तरह प्रमाण नहीं है। ऐसा ही न्याय सूत्रके रचयिता माणिक्य नंदी ने कहा है-अपने आपको नही जानने वाले, गृहीत अर्थ को ग्रहण करने वाले सशय वगैरह प्रमाणाभास है। यहा आदि शब्द से विपर्यय और अनध्यवसाय का भी ग्रहण है। प्रमाण विरुद्ध अनेक कोटि स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते है, जैसे अन्धकार मे यह टूठ है या पुरुप है। बड़ा है भी और नही भी, आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी इत्यादि वाक्यो मे अनेक कोटि स्पर्शात्मक ज्ञान होने पर भी प्रमाण सिद्ध होने से संशय नहीं है । जो वस्तु जैसी नही है उसमे वैसा
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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