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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [७५ चारित्रिक योग्यता एक रूप नहीं होती । उसमें असीम तारतम्य होता है। विस्तार-दृष्टि से चारित्र-विकास के अनन्त स्थान हैं । संक्षेप में उसके वर्गीकृत स्थान दो हैं-(१) देश (अपूर्ण) चारित्र (२) सर्व-(पूर्ण) चारित्र । पाँचवी भूमिका देश-चारित्र (अपूर्ण-विरति) की है। यह गृहस्थ का साधनाक्षेत्र है। जैनागम गृहस्थ के लिए वारह व्रतो का विधान करते हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्त्रदार-सन्तोष और इच्छा-परिमाण--ये पाँच अणुव्रत हैं। दिग-विरति, भोगोपभोग-विरति और अनर्थ दण्ड-विरति-ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, देशावकाशिक, पौपधोपवास और अतिथि-संविभाग–ये चार शिक्षाव्रत हैं। बहुत लोग दूसरो के अधिकार या स्वत्व को छीनने के लिए, अपनी भोगसामग्री को समृद्ध करने के लिए एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाया करते हैं। इसके साथ शोपण या असंयम की कड़ी जुड़ी हुई है। असंयम को खुला रखकर चलने वाला स्वस्थ अणुव्रती नही हो सकता। दिग-व्रत में सार्वभौम ( आर्थिक राजनीतिक या और और सभी प्रकार के ) अनाक्रमण की भावना है। भोगउपभोग की खुलावट और प्रमाद जन्य भूलो से बचने के लिए सातवां और आठवां व्रत किया गया है। ये तीनो व्रत अणुव्रतो के पोषक है, इसलिए इन्हे गुण व्रत कहा गया है। धर्म समतामय है। राग-द्वेप विपमता है। समता का अर्थ है-राग द्वेष का अभाव । विपमता है राग-द्वप का भाव । सम भाव की आराधना के लिए सामायिक व्रत है। एक मुहूर्त तक सावध प्रवृत्ति का त्याग करना सामायिक व्रत है। __ सम भाव की प्राप्ति का साधन जागरूकता है। जो व्यक्ति पल-पल जागरूक रहता है, वही सम भाव की ओर अग्रसर हो सकता है । पहले आठ व्रतो की सामान्य मर्यादा के अतिरिक्त थोड़े समय के लिए विशेष मर्यादा करना, अहिंसा आदि की विशेष साधना करना देशावकाशिक व्रत है। पौषधोपवास-व्रत साधु-जीवन का पूर्वाभ्यास है। उपवासपूर्वक सावद्य प्रवृत्ति को त्याग समभाव की उपासना करना पौषधोपवास व्रत है।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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