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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [७३ करते। वे एकान्त प्रक्रियावादी बन जाते हैं। भगवान् महावीर ने इसे वाणी का वीर्य या वाचनिक आश्वासन कहा है १३॥" __ सम्यग दृष्टि के पाप का बन्ध नहीं होता या उसके लिए कुछ करना शेप नहीं रहता-ऐसी मिथ्या धारणा न बने, इसीलिए चतुर्थ भूमिका के अधिकारी को अधी ,१४ वाल'' और सुप्त कहा है । "जानामि धर्म न च मे प्रवृतिः जनाम्यधर्म न च मे निवृतिः" ___ "धर्म को जानता हूँ, पर उसमें प्रवृति नहीं है, अधर्म को भी जानता हूँ पर उससे निवृत्ति नहीं है।" यह एक बहुत बड़ा तथ्य है। इसका पुनरावर्तन प्रत्येक जीव मे होता है। यह प्रश्न अनेक मुखो से मुखरित होता रहता है कि "क्या कारण है, हम बुराई को बुराई जानते हुए भी समझते हुए भी छोड़ नहीं पाते ?" जैन कर्मवाद इसका कारण के साथ समाधान प्रस्तुत करता है। वह यू है - जानना ज्ञान का कार्य है। ज्ञान 'ज्ञानावरण' के पुद्गली का विलय होने पर प्रकाशमान होता है। सही विश्वास होना श्रद्धा है। वह दर्शन को मोहने वाले पुदगलो के अलग होने पर प्रगट होती है दुरी वृत्ति को छोड़ना, अच्छा आचरण करना-यह चारित्र को मोहने वाले पुद्गलो के दूर होने पर सम्भव होता है। ज्ञान के प्रावारक पुदगलो के हट जाने पर भी दर्शन-मोह के पुद्गल अात्मा पर छाए हुए हो तो वस्तु जान ली जाती है, पर विश्वास नहीं होता। दर्शन को मोहने वाले पुद्गल बिखर जाएं, तब उस पर श्रद्धा बन जाती है। पर चारित्र को मोहने वाले पुदगलो के होते हुए उसका स्वीकार (या याचरण) नहीं होता। इस दृष्टि से इनका क्रम यह बनता है-(१) ज्ञान, (२)श्रद्धा (३) चारित्र । ज्ञान श्रद्धा के बिना भी हो सकता है पर श्रद्धा उसके बिना नहीं होती। श्रद्धा चारित्र के विना भी हो सकती है, पर चारित्र उसके विना नहीं होता। अतः वाणी और कर्म का द्वैध ( कथनी और करनी का अन्तर ) जो होता है, वह निष्कारण नहीं है। ज्यो साधना आगे बढ़ती है, चारित्र का भाव प्रगट होता है, त्यो द्वैध की खाई पटती जाती है पर वह छमस्थ-दशा (प्रमत्त-दशा) में पूरी नहीं पटती ।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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